एक बहुत दामी बात बताता हूँ, जो मैंने पुस्तकोंमें पढ़ी है और सन्तोंसे सुनी है । परमात्मा हैं और वे सब समयमें हैं । कोई ऐसा समय नहीं जिसमें
वे नहीं हों । समय उनके अन्तर्गत है । उनका किसी भी समयमें अभाव नहीं होता,
पर उनमें समयका अभाव हो जाता है । वे परमात्मा सब समयमें हैं, तो अभी भी हैं । अगर
अभी नहीं हैं तो सब समयमें कैसे हुए ? वे सब जगह हैं, तो
यहाँ भी हैं । अगर यहाँ नहीं हैं तो उनको सब जगह कैसे कहा जाय ? वे सबमें हैं, तो मेरेमें भी हैं । अगर मेरेमें नहीं
हैं तो उनको सबमें कैसे कहा जाय ? एक और विलक्षण बात है कि वे अपने हैं ! शरीर
अपना नहीं है, बुद्धि अपनी नहीं है, इन्द्रियाँ अपनी नहीं हैं; क्योंकि ये
सब-के-सब प्रकृतिके कार्य हैं, जड़ हैं, उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं । जैसे, आप कहते हैं कि ‘मैं हूँ’, तो इसमें कोई सन्देह होता
है क्या कि ‘मैं हूँ कि नहीं हूँ’ ? किसीसे पूछना पड़ता है क्या ? किसीसे गवाही
लेनी पड़ती है क्या ? यह तो स्वतःसिद्ध है । इस ‘मैं हूँ’ में ‘मैं’-पन तो
प्रकृतिको लेकर है और हूँ’-पन ‘है’ (परमात्मा)-को लेकर है । वह ‘है’ ही ‘हूँ’ हुआ
है । प्रकृतिसे सम्बन्ध छूटते ही ‘है’ रह जाता है और
‘हूँ’-पन मिट जाता है‒यह सन्तोंका अनुभव है । इस बातको आप दृढ़तासे मान लें, तो काम
ठीक हो जायगा । इसमें एक बड़ी बाधा है । वह बाधा क्या है ? यह बताता हूँ ।
आप विशेष ध्यान दें । साधन, भजन-ध्यान करनेपर भी इधर दृष्टि नहीं जाती । वर्षोंतक व्याख्यान
देनेपर भी यह बात मेरे अक्लमें नहीं आयी । वही बात अभी आपको सीधी कह दूँ, जिसे आप
अभी मान लो । यह जो संयोगजन्य सुख है, इसका हम जो रस लेते हैं, बस यही खास बाधा है
। खाना-पीना, सोना-जागना, बैठना-बोलना तथा मान-बड़ाई आदि जितने हैं, इनके
सम्बन्धसे एक सुख होता है । इस सुखमें जो आसक्ति तथा खिंचाव है, यही खास बाधा है ।
इसको मिटानेका उपाय क्या है ? यह भाव हो जाय कि दूसरोंको
सुख कैसे मिले ? यह कपड़ा बढ़िया है तो दूसरोंको कैसे मिले ? मान-बड़ाई बढ़िया
है तो दूसरोंको कैसे मिले ? इस प्रकार दूसरोंको देनेका भाव बन जाय । यह बड़ा सुगम उपाय है संयोगजन्य सुखसे छूटनेका
! यह काम आप घरसे ही शुरू कर दो । माता-पिता, स्त्री-पुत्र आदि सबको सुख
पहुँचाना है, पर उनसे सुख नहीं लेना है । आप उनको सुख पहुँचाते हैं, पर भाव यह
रहता है कि पुत्र मेरा कहना माने, माँकी मैं सेवा करूँ तो वह अपने गहने आदि मेरेको
ही दे‒यहीं खतरा है । लेनेका भाव ही खास बाँधनेवाली चीज है । अतः लेनेका भाव छोड़कर
केवल माँकी प्रसन्नताके लिये ही माँकी सेवा करो । माँसे कह दो कि आपके पास जो
गहना, रुपया आदि है, वह चाहे मेरे भाईको दे दो, चाहे मेरी बहनको दे दो, चाहे
ब्राह्मणको दे दो, जहाँ आपकी मर्जी हो, वहाँ दे दो । पर मेरेसे तो केवल सेवा ले
लो, इसमें आप संकोच मत करो । हमारा काम केवल सेवा करना है । माता-पिताकी सेवा करनी है । स्त्रीको विवाह करके लाये तो
उसको दुःख न हो‒यह हमारा कर्तव्य है, चाहे वह हमारी सेवा करे या न करे । वह हमें
तंग करे, दुःख दे तो ऐसा मानो कि भगवान्ने हमारेपर बड़ी कृपा की है । अगर वह
मनोऽनुकूल सेवा करती तो हम मोहमें फँस जाते । भगवान् ही
माता-पिता, स्त्री-पुत्र आदिके रूपमें मेरेसे सेवा ले रहे हैं‒ऐसा भाव हो जाय तो
सुखकी आसक्ति छूट जायगी । वह छूटी और परमात्माकी प्राप्ति हुई; क्योंकि
परमात्मा तो हैं ही सब जगह । सब देशमें, सब कालमें, सब वस्तुओंमें, सम्पूर्ण
घटनाओंमें, सम्पूर्ण परिस्थितियोंमें वे ही तो हैं । दूसरा आये कहाँसे ? अतः परमात्मप्राप्तिका बड़ा
सुगम उपाय है कि सुख दे दें, और बाधा है‒सुख ले लें । नारायण ! नारायण
!! नारायण !!! ‒ ‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे |