सभी रतियोंकी दो
अवस्थाएँ मानी गयी हैं—संयोग (सम्भोग) और वियोग (विप्रलम्भ) । संयोग-रतिमें पत्नी
भोजनादिके द्वारा पतिकी सेवा करती है और वियोग-रतिमें (पतिके दूर होनेसे) वह पतिका
स्मरण-चिन्तन करती है । वियोग-रतिमें प्रेमास्पदकी निरन्तर मानसिक सेवा होती है ।
अतः संयोग-रतिकी अपेक्षा वियोग-रतिको श्रेष्ठ माना गया है । चैतन्य महाप्रभुने भी इस वियोग-रतिका विशेष आदर किया है ।
इसमें भी ‘परकीया माधुर्य-रति’ की वियोगावस्था सबसे ऊँची है, जिसमें प्रेमी और
प्रेमास्पदमें नित्ययोग रहता है । प्रेम-रसकी वृद्धिके लिये इस नित्ययोगमें
चार अवस्थाएँ होती हैं‒ १-नित्ययोगमें योग २-नित्ययोगमें वियोग ३-वियोगमें नित्ययोग ४-वियोगमें वियोग प्रेमी और
प्रेमास्पदका परस्पर मिलन होना ‘नित्ययोगमें योग’ है । प्रेमास्पदसे मिलन होनेपर
भी प्रेमीमें यह भाव आ जाता है कि प्रेमास्पद कहीं चले गये हैं‒यह ‘नित्ययोगमें
वियोग’ है । प्रेमास्पद सामने नहीं हैं, पर मनसे उन्हींका गाढ़ चिन्तन हो रहा है और
वे मनसे प्रत्यक्ष मिलते हुए दिख रहे हैं‒यह
‘वियोगमें नित्ययोग’ है । प्रेमास्पद थोड़े समयके लिये सामने नहीं आये, पर
मनमें ऐसा भाव है कि उनसे मिले बिना युग बीत गया‒यह ‘वियोगमें वियोग’ है ।
वास्तवमें इन चारों अवस्थाओंमें प्रेमास्पदके साथ नित्ययोग ज्यों-का-त्यों बना
रहता है, वियोग कभी होता ही नहीं, हो सकता ही नहीं और होनेकी सम्भावना भी नहीं । प्रेमका आदान-प्रदान करनेके लिये ही प्रेमी और प्रेमास्पदमें
संयोग-वियोगकी लीला हुआ करती है । हनुमान्जीमें
संयोग-रति और वियोग-रति‒दोनों ही विलक्षणरूपसे विद्यमान हैं । संयोगकालमें वे भगवान्की सेवामें ही रत रहते हैं और
वियोगकालमें भगवान्के स्मरण-चिन्तनमें डूबे रहते हैं । संयोग-रतिमें
प्रेमी खुद भी सुख लेता है; जैसे पतिको सुख देनेके साथ-साथ पत्नी खुद भी सुखका
अनुभव करती है । परन्तु हनुमान्जीकी संयोग-रतिमें
किंचिन्मात्र भी अपना सुख नहीं है । केवल भगवान्के सुखमें ही उनका सुख है‒‘तत्सुखे सुखित्वम्’ । वे तो भगवान्को सुख पहुँचाने,
उनकी सेवा करनेके लिये सदा आतुर रहते हैं, छटपटाते रहते हैं‒ राम
काज करिबे को आतुर । (हनुमानचालीसा) राम
काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ॥ (मानस ५/१)
एक बार सुबह
हनुमान्जीको भूख लग गयी तो वे माता सीताजीके पास गये और बोले कि माँ ! मेरेको भूख
लगी है, खानेके लिये कुछ दो । सीताजीने कहा कि बेटा ! मैंने अभीतक स्नान नहीं किया
है । तुम ठहरो, मैं अभी स्नान करके भोजन देती हूँ । सीताजीने स्नान करके श्रृंगार
किया । उनकी माँगमें सिन्दूर देखकर सहज सरल हनुमान्जीने पूछा कि माँ ! आपने यह
सिन्दूर क्यों लगाया है ? सीताजीने कहा कि बेटा ! इसको लगानेसे तुम्हारे स्वामीकी
आयु बढ़ती है । ऐसा सुनकर हनुमान्को विचार आया कि अगर सिन्दूरकी एक रेखा खींचनेसे
रामजीकी आयु बढ़ती है, तो फिर पूरे शरीरमें सिन्दूर लगानेसे उनकी आयु कितनी बढ़
जायगी ! सीताजी रसोईमें गयीं तो हनुमान्जी श्रृंगार कक्षमें चले गये और उन्होंने
सिन्दूरकी डिबियाको नीचे पटक दिया । सब सिन्दूर नीचे बिखर गया और हनुमान्जी वह सिन्दूर अपने पूरे शरीरपर लगा लिया
! अब मेरे प्रभुकी आयु खूब बढ़ जायगी‒ऐसा सोचकर हनुमान्जी बड़े हर्षित हो
गये और भूख-प्यासको भूलकर सीधे रामजीके दरबारमें पहुँच गये ! उनको इस वेशमें देखकर
सभी हँसने लगे । रामजीने पूछा कि हनुमान् ! आज तुमने अपने शरीरपर सिन्दूरका लेप
कैसे कर लिया ? हनुमान्जी बोले कि प्रभो ! माँके थोड़ा-सा सिन्दूर लगानेसे आपकी
आयु बढ़ती है‒ऐसा जानकर मैंने पूरे शरीरपर ही सिन्दूर लगाना शुरू कर दिया है, जिससे
आपकी आयु खूब बढ़ जाय ! रामजीने कहा कि बहुत अच्छा ! अब
आगेसे जो भक्त तुम्हारेको तेल और सिन्दूर चढ़ायेगा, उसपर मैं बहुत प्रसन्न होऊँगा ! |