हनुमान्जीकी
वियोग-रति भी विचित्र ही है । लौकिक अथवा पारमार्थिक जगत्में कोई भी व्यक्ति अपने
इष्टका वियोग नहीं चाहता । परन्तु भगवान्का कार्य
करनेके लिये तथा उनका निरन्तर स्मरण करनेके लिये, उनका गुणानुवाद (लीला-कथा)
सुननेके लिये हनुमान्जी भगवान्से वियोग-रतिका वरदान माँगते हैं‒ यावद् रामकथा
वीर चरिष्यति महीतले । तावच्छरीरे
वत्स्यन्तु प्राणा मम न संशयः ॥ (वाल्मीकि॰ उत्तर॰४०/१७) ‘वीर
श्रीराम ! इस पृथ्वीपर जबतक रामकथा प्रचलित रहे, तबतक निःसन्देह मेरे प्राण इस
शरीरमें ही बसे रहें ।’ कोई प्रेमास्पद भी अपने प्रेमीसे वियोग नहीं चाहता । परन्तु भगवान्
श्रीराम जब परमधाम पधारने लगे, तब वे भक्तोंकी सहायता, रक्षाके लिये हनुमान्जीको
इस पृथ्वीपर ही रहनेकी आज्ञा देते हैं । यह भी एक विशेष बात है ! भगवान् कहते हैं‒ जीविते
कृतबुद्धिस्त्वं मा प्रतिज्ञां वृथा कृथाः । मत्कथाः
प्रचरिष्यन्ति यावल्लोके हरीश्वर ॥ तावद् रमस्व
सुप्रीतो मद्वाक्यमनुपालयन् । एवमुक्तस्तु हनुमान् राघवेण महात्मना ॥ वाक्यं विज्ञापयामास
परं हर्षमवाप च । (वाल्मीकि॰उत्तर॰ १०८/३३‒३५) ‘हरीश्वर
! तुमने दीर्घकालतक जीवित रहनेका निश्चय किया है । अपनी इस प्रतिज्ञाको व्यर्थ न
करो । जबतक संसारमें मेरी कथाओंका प्रचार रहे, तबतक तुम भी मेरी आज्ञाका पालन करते
हुए प्रसन्नतापूर्वक विचरते रहो । महात्मा श्रीरघुनाथजीके ऐसा कहनेपर हनुमान्जीको
बड़ा हर्ष हुआ और वे इस प्रकार बोले‒’ यावत् तव कथा लोके
विचरिष्यति पावनी ॥ तावत् स्थास्यामि
मेदिन्यां तवाज्ञामनुपालयन् । (वाल्मीकि॰ उत्तर॰ १०८/३५-३६) इसीलिये हनुमान्जीके
लिये आया है‒‘राम चरित सुनिबे को रसिया ।’ एक बार भरत,
लक्ष्मण और शत्रुघ्न‒तीनों भाइयोंने माता सीताजीसे मिलकर विचार किया कि हनुमान्जी
हमें रामजीकी सेवा करनेका मौका ही नहीं देते, पूरी सेवा अकेले ही किया करते हैं ।
अतः अब रामजीकी सेवाका पूरा काम हम ही करेंगे, हनुमान्जीके लिये कोई काम नहीं
छोड़ेंगे । ऐसा विचार करके उन्होंने सेवाका पूरा काम आपसमें बाँट लिया । जब हनुमान्जी
सेवाके लिये सामने आये, तब उनको रोक दिया और कहा कि आजसे प्रभुकी सेवा बाँट दी गयी है, आपके लिये कोई सेवा नहीं है । हनुमान्जीने
देखा कि भगवान्के जम्हाई (जँभाई) आनेपर चुटकी बजानेकी सेवा किसीने भी नहीं ली है ।
अतः उन्होंने यही सेवा अपने हाथमें ले ली । यह सेवा किसीके खयालमें ही नहीं आयी थी
! हनुमान्जीमें प्रभुकी सेवा करनेकी लगन थी । जिसमें लगन होती है, उसको कोई-न-कोई सेवा
मिल ही जाती है । अब हनुमान्जी दिनभर रामजीके सामने ही बैठे रहे और उनके
मुखकी तरफ देखते रहे; क्योंकि रामजीको किस समय जम्हाई आ जाय, इसका क्या पता ? जब
रात हुई, तब भी हनुमान्जी उसी तरह बैठे रहे । भरतादि सभी भाइयोंने हनुमान्जीसे
कहा कि रातमें आप यहाँ नहीं बैठ सकते, अब आप चले जायँ । हनुमान्जी बोले कैसे चला
जाऊँ ? रातको न जाने कब रामजीको जम्हाई आ जाय ! जब बहुत आग्रह किया, तब हनुमान्जी
वहाँसे चले गये और छतपर जाकर बैठ गये । वहाँ बैठकर उन्होंने लगातार चुटकी बजाना
शुरू कर दिया; क्योंकि रामजीको न जाने कब जम्हाई आ जाय ! यहाँ रामजीको ऐसी जम्हाई आयी कि उनका मुख खुला ही रह गया, बन्द हुआ ही नहीं !
यह देखकर सीताजी बड़ी व्याकुल हो गयीं कि न जाने रामजीको क्या हो गया है ! भरतादि
सभी भाई आ गये । वैद्योंको बुलाया गया तो वे भी कुछ कर नहीं सके । वशिष्ठजी आये तो
उनको आश्चर्य हुआ कि ऐसी चिन्ताजनक स्थितिमें हनुमान्जी दिखायी नहीं दे रहे हैं ! और सब तो यहाँ हैं, पर हनुमान्जी
कहाँ है ? खोज करनेपर हनुमान्जी छतपर चुटकी बजाते हुए मिले । उनको बुलाया
गया और वे रामजीके पास आये तो चुटकी बजाना बन्द करते ही रामजीका मुख स्वाभाविक
स्थितिमें आ आया ! अब सबकी समझमें आया कि यह सब लीला हनुमान्जीकी चुटकी बजानेके
कारण ही थी ! भगवान्ने यह लीला इसलिये की थी कि जैसे
भूखेको अन्न देना ही चाहिये, ऐसे ही सेवाके लिये आतुर हनुमान्जीको सेवाका अवसर
देना ही चाहिये, बन्द नहीं करना चाहिये । फिर भरतादि भाइयोंने ऐसा आग्रह
नहीं रखा । तात्पर्य है कि संयोग-रति और वियोग-रति‒दोनोंमें ही हनुमान्जी भगवान्की
सेवा करनेमें तत्पर रहते हैं । इस प्रकार हनुमान्जीका दास्य, सख्य, वात्सल्य तथा माधुर्य-भाव
बहुत विलक्षण है ! इस कारण हनुमान्जीकी ऐसी विलक्षण महिमा है कि संसारमें भगवान्से
भी अधिक उनका पूजन होता है । जहाँ
भगवान् श्रीरामके मन्दिर हैं, वहाँ तो उनके साथ हनुमान्जी विराजमान हैं ही, जहाँ
भगवान् श्रीरामके मन्दिर नहीं हैं, वहाँ भी हनुमान्जीके स्वतन्त्र मन्दिर हैं !
उनके मन्दिर प्रत्येक गाँव और शहरमें, जगह-जगह मिलते हैं । केवल भारतमें ही नहीं,
प्रत्युत विदेशोंमें भी हनुमान्जीके अनेक मन्दिर हैं । इस प्रकार वे रामजीके साथ
भी पूजित होते हैं और स्वतन्त्र रूपसे भी पूजित होते हैं । इसलिये कहा गया है‒ मोरे मन प्रभु अस बिस्वासा । राम ते अधिक राम
कर दासा ॥ (मानस ७/१२०/८) भगवान् शंकर
कहते हैं‒ हनुमान् सम नहिं
बड़भागी । नहीं कोउ राम चरन
अनुरागी ॥ गिरजा जासु
प्रीति सेवकाई । बार बार प्रभु निज मुख
गाई ॥ (मानस
७/५०/४-५) स्वयं भगवान्
श्रीराम हनुमान्जीसे कहते हैं‒ मदङ्गे जीर्णतां
यातु यत् त्वयोपकृतं
कपे । नरः
प्रत्युपकाराणामापत्स्वायाति पात्रताम् ॥ (वाल्मीकि॰ उत्तर॰ ४०/२४) ‘कपिश्रेष्ठ
! मैं तो यही चाहता हूँ कि तुमने जो-जो उपकार किये हैं, वे सब मेरे शरीरमें ही पच
जायँ ! उनका बदला चुकानेका मुझे कभी अवसर न मिले; क्योंकि उपकारका बदला पानेका
अवसर मनुष्यको आपत्तिकालमें ही मिलता है (मैं नहीं चाहता कि तुम कभी संकटमें पड़ो
और मैं तुम्हारे उपकारका बदला चुकाऊँ) ।’ नारायण ! नारायण !! नारायण !!! ‒ ‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे |