मनमें ईर्ष्या,
राग, द्वेष आदि दोष भरे हुए हैं । बहुत-से भाई-बहन इस बातको जानते ही नहीं है और
जो जानते हैं वे विशेष खयाल नहीं करते । कई खयाल करके छोड़ना
भी चाहते हैं, लेकिन इसमें सुख लेते रहते हैं । इस कारण राग, द्वेष, ईर्ष्या आदि
छूटते नहीं, क्योंकि असत्का संग रहता है । सत्का संग
(सत्संग) मिल जाय तो आदमी निहाल हो जाय । जहाँ सत्का संग हुआ, वह निहाल हुआ ।
कारण क्या है ? परमात्मा सत् हैं । बीचमें जितना-जितना असत्का सम्बन्ध मान रखा
है, वही बाधा है । जैसे
कल्पवृक्षके नीचे जानेसे सब काम सिद्ध होते हैं, वैसे ही सत्संग करनेसे सब काम
सिद्ध होते हैं । अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष‒चारों पुरुषार्थ सिद्ध होते हैं । तो
क्या सत्संगसे धन मिल जाता है ? कहते हैं कि सत्संगसे बड़ा विलक्षण धन मिलता है ।
रुपया मिलनेसे तृष्णा जागृत होती है और सत्संग करनेसे तृष्णा मिट जाती है ।
रुपयोंकी जरूरत ही नहीं रहती । गंगा पापं शशी तापं दैन्यं कल्पतरुर्हरेत् । पापं
तापं तथा दैन्यं सद्यः साधुसमागमः ॥ गंगाजीमें स्नान
करनेसे पाप दूर हो जाते हैं; पूर्णिमाके दिन चन्द्रमा पूरा उदय होता है, उस दिन
तपत (गरमी) शान्त हो जाती है; कल्पवृक्षके नीचे बैठनेसे दरिद्रता दूर हो जाती है ।
पर सत्संगसे तीनों बातें हो जाती हैं‒पाप नष्ट होते हैं,
भीतरी ताप मिट जाता है और संसारकी दरिद्रता दूर हो जाती है । चाह गई चिन्ता मिटी, मनुआ बेपरवाह । जिनको
कछू न चाहिए, सो साहन पतिशाह ॥ सत्संगसे
हृदयकी चाहना भी मिट जाती है । यह बात एकदम सच्ची है, सत्संग
करनेवाले भाई-बहन तो इस बातको जानते हैं । बिलकुल ठीक बात है, सत्संगसे हृदयकी जलन दूर हो जाती है । मनुष्य चाहता है
कि ऐसे हो जाय, वैसे हो जाय तो ऐसी बात आती है कि‒ मना मनोरथ छोड़ दे तेरा
किया न होय । पानी
में घी निपजे तो सूखी खाय न कोय ॥ यद्भावि न तद्भावि भावि चेन्न तदन्यथा । इति
चिन्ताविषघ्नोऽयमगदः किं न पीयते ॥ जो नहीं होना है,
वह नहीं होगा और जो होनेवाला है, वह टल नहीं सकता, होकर रहेगा फिर ऐसा क्यों आग्रह
कि यह होना चाहिये, यह नहीं होना चाहिये । बस हाँ-में-हाँ मिला दें । सत्संग भी एक
कला है । सत्संगमें
कला मिलती है, दुःखोंसे पार होनेकी । जैसे समुद्रमें डूबनेवालेको तैरनेकी
कला हाथ लग जाय, ऐसे सत्संगमें युक्ति मिल जाय तो निहाल हो जाय । सत्संगमें
उत्तम विचार मिलते हैं । ज्ञानमार्गमें तो यहाँतक बताया है‒ धन किस लिए है चाहता, तू आप मालामाल है । सिक्के
सभी जिससे बनें, तू वह महा टकसाल है ॥ उस धनके आगे तू इस धनको क्यों चाहता है ? धन-ही-धन है । परमात्मा-ही-परमात्मा है; लबालब भरा हुआ है । उस धनसे धन्य हो जाय । परमात्माका, सत्का दर्शन‒यह सत्संग करा देता है । |