।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    वैषाख कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०७९, रविवार

गीताके प्रत्येक अध्यायका तात्पर्य




गीताध्यायस्य निष्कर्षं ज्ञातुमिच्छन्ति ये जनाः

तैः सुखपूर्वकं ग्राह्यस्ततः   सारोऽत्र  लिख्यते ॥

पहला अध्याय

मोहके कारण ही मनुष्य ‘मैं क्या करूँ और क्या नहीं करूँ’इस दुविधामें फँसकर कर्तव्यच्युत हो जाता है । अगर वह मोहके वशीभूत न हो तो वह कर्तव्यच्युत नहीं हो सकता ।

भगवान्, धर्म, परलोक आदिपर श्रद्धा रखनेवाले मनुष्योंके भीतर प्रायः इन बातोंको लेकर हलचल, दुविधा रहती है कि अगर हम कर्तव्यरूपसे प्राप्त कर्मको नहीं करेंगे तो हमारा पतन हो जायगा; अगर हम केवल सांसारिक कार्यमें ही लग जायँगे तो हमारी आध्यात्मिक उन्नति नहीं होगी; व्यवहारमें लगनेसे परमार्थ ठीक नहीं होगा और परमार्थमें लगनेसे व्यवहार ठीक नहीं होगा; अगर हम कुटुम्बको छोड़ देंगे तो हमें पाप लगेगा और अगर कुटुम्बमें ही बैठे रहेंगे तो हमारी आध्यात्मिक उन्नति नहीं होगी; आदि-आदि । तात्पर्य है कि अपना कल्याण तो चाहते हैं, पर मोह, सुखासक्तिके कारण संसार छूटता नहीं । इसी तरहकी हलचल अर्जुनके मनमें भी होती है कि अगर मैं युद्ध करूँगा तो कुलका नाश होनेसे मेरे कल्याणमें बाधा लगेगी; और अगर मैं युद्ध नहीं करूँगा तो कर्तव्यच्युत होनेसे मेरे कल्याणमें बाधा लगेगी ।

दूसरा अध्याय

अपने विवेकको महत्त्व देना और अपने कर्तव्यका पालन करनाइन दोनों उपायोमेंसे किसी भी एक उपायको मनुष्य दृढ़तासे काममें लाये तो शोक-चिन्ता मिट जाते हैं ।

जितने शरीर दीखते हैं, वे सभी नष्ट होनेवाले है, मरनेवाले हैं, पर उनमें रहनेवाला कभी मरता नहीं । जैसे शरीर बाल्यावस्थाको छोड़कर युवावस्थाको और युवावस्थाको छोड़कर वृद्धावस्थाको धारण कर लेता है, ऐसे ही शरीरमें रहनेवाला एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरको धारण कर लेता है । मनुष्य जैसे पुराने वस्त्रोंको छोड़कर नये वस्त्रोंको पहन लेता है, ऐसे ही शरीरमें रहनेवाला शरीररूपी एक चोलेको छोड़कर दूसरा चोला पहन लेता है । जितनी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती हैं, वे पहले नहीं थीं और पीछे भी नहीं रहेंगी तथा बीचमें भी उनसे प्रतिक्षण वियोग हो रहा है । तात्पर्य है कि वे परिस्थितियाँ आने-जानेवाली है, सदा रहनेवाली नहीं है । इस प्रकार स्पष्ट विवेक हो जाय तो हलचल, शोक-चिन्ता नहीं रह सकती । शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार जो कर्तव्य-कर्म प्राप्त हो जाय, उसका पालन कार्यकी पूर्ति-अपूर्ति और फलकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें सम (निर्विकार) रहकर किया जाय तो भी हलचल नहीं रह सकती ।

तीसरा अध्याय

इस मनुष्यलोकमें सभीको निष्कामभावपूर्वक अपने कर्तव्यका तत्परतासे पालन करना चाहिये, चाहे वह ज्ञानी हो या अज्ञानी हो, चाहे वह भगवान्‌का अवतार ही क्यों न हो ! कारण कि सृष्टिचक्र अपने-अपने कर्तव्यका पालन करनेसे ही चलता है । मनुष्य न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना सिद्धिको प्राप्त होता है और न कर्मोंके त्यागसे सिद्धिको प्राप्त होता है ब्रह्माजीने सृष्टि-रचनाके समय प्रजासे कहा कि तुमलोग अपने-अपने कर्तव्य-कर्मके द्वारा एक-दूसरेकी सहायता करो, एक-दूसरेको उन्नत करो तो तुमलोग परमश्रेयको प्राप्त हो जाओगे । जो सृष्टिचक्रकी मर्यादाके अनुसार अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, उसका इस संसारमें जीना व्यर्थ है । यद्यपि मनुष्यरूपमें अवतरित भगवान्‌के लिये इस त्रिलोकीमें कोई कर्तव्य नहीं है, फिर भी वे लोकसंग्रहके लिये अपने कर्तव्यका तत्परतासे पालन करते है । ज्ञानी महापुरुषको भी लोकसंग्रहके लिये अपने कर्तव्यका तत्परतासे पालन करना चाहिये । अपने कर्तव्यका निष्कामभावपूर्वक पालन करते हुए मनुष्य मर भी जाय, तो भी उसका कल्याण है ।