।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    वैषाख कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०७९, सोमवार

गीताके प्रत्येक अध्यायका तात्पर्य



चौथा अध्याय

सम्पूर्ण कर्मोंको लीन करनेके, सम्पूर्ण कर्मोंके बन्धनसे रहित होनेके दो उपाय हैकर्मोंके तत्त्वको जानना और तत्त्वज्ञानको प्राप्त करना ।

भगवान् सृष्टिकी रचना तो करते हैं, पर उस कर्ममें और उसके फलमें कर्तृत्वाभिमान एवं आसक्ति न होनेसे वे बँधते नहीं । कर्म करते हुए जो मनुष्य कर्मफलकी आसक्ति, कामना, ममता आदि नहीं रखते अर्थात् कर्मफलसे सर्वथा निर्लिप्त रहते हैं और निर्लिप्त रहते हुए कर्म करते हैं, वे सम्पूर्ण कर्मोंको काट देते है । जिसके सम्पूर्ण कर्म संकल्प और कामनासे रहित होते हैं, उसके सम्पूर्ण कर्म जल जाते हैं । जो कर्म और कर्मफलकी आसक्ति नहीं रखता, वह कर्मोंमें सांगोपांग प्रवृत्त होता हुआ भी कर्मोंसे नहीं बँधता । जो केवल शरीर-निर्वाहके लिये ही कर्म करता है तथा जो कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धिमें सम रहता है, वह कर्म करके भी नहीं बँधता । जो केवल कर्तव्यपरम्परा सुरक्षित रखनेके लिये ही कर्म करता है, उसके सम्पूर्ण कर्म लीन हो जाते हैं । इस तरह कर्मोंके तत्त्वको ठीक तरहसे जाननेसे मनुष्य कर्म-बन्धनसे रहित हो जाता है ।

जड़तासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाना ही तत्त्वज्ञान है । यह तत्त्वज्ञान पदार्थोंसे होनेवाले यज्ञोंसे श्रेष्ठ है । इस तत्त्वज्ञानमें सम्पूर्ण कर्म समाप्त हो जाते हैं । तत्त्वज्ञानके प्राप्त होनेपर फिर कभी मोह नहीं होता । पापी-से-पापी मनुष्य भी ज्ञानसे सम्पूर्ण पापोंको तर जाता है । जैसे अग्नि सम्पूर्ण ईंधनको जला देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मोंको भस्म कर देती है ।

पाँचवाँ अध्याय

मनुष्यको अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंके आनेपर सुखी-दुःखी, राजी-नाराज नहीं होना चाहिये; क्योंकि इन सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंमें फँसा हुआ मनुष्य संसारसे ऊँचा नहीं उठ सकता ।

स्त्री, पुत्र, परिवार, धन-सम्पत्तिका केवल स्वरूपसे त्याग करनेवाला संन्यासी नहीं है, प्रत्युत जो अपने कर्तव्यका पालन करते हुए राग-द्वेष नहीं करता, वही सच्चा संन्यासी है । जो अनुकूल परिस्थितिके आनेपर हर्षित नहीं होता और प्रतिकूल परिस्थितिके आनेपर उद्विग्‍न नहीं होता, ऐसा वह द्वन्द्वोंसे रहित मनुष्य परमात्मामें ही स्थित रहता है । सांसारिक सुख-दुःख, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि द्वन्द्व दुःखोंके ही कारण हैं । अतः बुद्धिमान् मनुष्यको उनमें नहीं फँसना चाहिये ।

छठा अध्याय

किसी भी साधनसे अन्तःकरणमें समता आनी चाहिये; क्योंकि समताके बिना मनुष्य अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंमें, मान-अपमानमें सम (निर्विकार) नहीं रह सकता और अगर वह परमात्माका ध्यान करना चाहे तो ध्यान भी नहीं कर सकता । तात्पर्य है कि अन्तःकरणमें समता आये बिना सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंका असर नहीं मिटेगा और मन भी ध्यानमें नहीं लगेगा ।

जो मनुष्य प्रारब्धके अनुसार प्राप्त अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंमें, वर्तमानमें किये जानेवाले कर्मोंकी पूर्ति-अपूर्तिमें, सिद्धि-असिद्धिमें, दूसरोंके द्वारा किये गये मान-अपमानमें, धन-सम्पत्ति आदिमें, अच्छे-बुरे मनुष्योंमें सम रहता है, वह श्रेष्ठ है । जो साध्यरूप समताका उद्देश्य रखकर मन-इन्द्रियोंके संयमपूर्वक परमात्माका ध्यान करता है, उसकी सम्पूर्ण प्राणियोंमें और उनके सुख-दुःखमें समबुद्धि हो जाती है । समता प्राप्त करनेकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंका अतिक्रमण कर जाता है । समतावाला मनुष्य सकामभाववाले तपस्वी, ज्ञानी और कर्मी मनुष्योंसे श्रेष्ठ है ।