श्रोता—परमात्मप्राप्तिकी
अनन्य लालसाके बिना भी परमात्मप्राप्ति हो सकती है क्या ? स्वामीजी—परमात्मप्राप्तिकी अनन्य लालसाके बिना, दूसरी लालसा रहते
हुए भी उद्योग किया जा सकता है, भजन-स्मरण किया जा सकता है । परन्तु यह लम्बा
रास्ता है, इससे तत्काल परमात्मप्राप्ति नहीं होगी । एक-दो जन्म, दस जन्म, पता
नहीं कितने जन्ममें हो जाय तो हो जाय ! दूसरी लालसा रहनेसे ही तो हम अटके पड़े हैं,
नहीं तो अटकते क्या ? जो सत्संगमें लगे हुए हैं, उनमें
कुछ-न-कुछ पारमार्थिक लालसा है ही; परन्तु अनन्य लालसा न होनेसे ही
परमात्मप्राप्तिमें देरी हो रही है । वास्तवमें देखा जाय तो पारमार्थिक लालसाके बिना कोई प्राणी
है ही नहीं । परन्तु इस बातका पता पशु-पक्षियोंको नहीं है । जो मनुष्य
पशु-पक्षियोंकी तरह ही जीवन बिता रहे हैं, उनको भी इस बातका पता नहीं है । सभी उस
तत्त्वको चाहते हैं । जैसे, कोई भी प्राणी मरना चाहता है क्या ? सभी प्राणी
निरन्तर रहना चाहते है—यह ‘सत्’
की चाहना है ! कोई अज्ञानी रहना चाहता है क्या ? सभी जानना चाहते हैं—यह ‘चित्’ की चाहना है । कोई दुःखी रहना चाहता है क्या ?
सभी सुखी रहना चाहते हैं—यह
‘आनन्द’ की चाहना है । इस प्रकार सत्-चित्-आनन्द-स्वरूप परमात्माकी चाहना सभीमें
स्वाभाविक है । इसको कोई मिटा नहीं सकता, दूसरी चाहनाएँ जितनी ज्यादा पकड़ रखी हैं,
उतनी ही परमात्मप्राप्तिमें देरी लगेगी । दूसरी चाहनाएँ जितनी मिटेंगी, उतनी ही
जल्दी परमात्मप्राप्ति होगी । सर्वथा चाहना मिटा दो तो
तत्काल परमात्मप्राप्ति हो जायगी । राज्यकी चाहना होनेसे ही ध्रुवजीको परमात्मप्राप्तिमें देरी
लगी । इस चाहनाके कारण अन्तमें उनको पश्चात्ताप हुआ कि मैंने गलती कर दी ! आप जिन चाहनाओंको पूरी करना चाहते हैं, उन चाहनाओंका आपको
पश्चात्ताप होगा और रोना पड़ेगा । अतः परमात्माकी प्राप्तिमें दूसरी लालसा
बाधा है—इस बातपर
विचार करनेसे दूसरी लालसा मिट जायगी । दूसरी लालसा परमात्मप्राप्तिमें बाधा
देनेमें ही सहायता करती है । इससे लोक-परलोकमें किसी तरहका किञ्चिन्मात्र भी फायदा
नहीं है । केवल नुकसानके सिवाय और कुछ नहीं है । दूसरी लालसा केवल आध्यात्मिक
मार्गमें बाधा डालती है । अगर इससे कुछ फायदा हो तो कोई बताओ कि अमुक लालसासे इतना
फायदा हो जायगा । इसमें कोरा नुकसान है । केवल नुकसानकी बात भी
आप नहीं छोड़ सकते, तो क्या छोड़ सकते हैं । श्रोता—दूसरी लालसा किसपर टिकी हुई है ?
स्वामीजी—दूसरी
लालसाएँ संयोगजन्य सुखभोगकी लालसापर टिकी हुई हैं । संयोगजन्य
सुखभोगकी जो लालसा है, मनमें जो रुचि है, यही बाधक है; सुख इतना बाधक नहीं है ।
असली बीमारी कहाँ है—इस बातका
हमें तो कई वर्षोंतक पता नहीं लगा था । व्याख्यान देते-देते कई वर्ष बीत गये तब
पता चला कि मनमें संयोगजन्य सुखकी जो लोलुपता है । यहाँ है वह बीमारी ! हमें सुख मिल जाय—बस, इस इच्छामें ही सब बाधाएँ हैं । यही अनर्थका
मूल है, यही जहर है । |