।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
       चैत्र शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

परमात्मप्राप्तिमें भोग और

संग्रहकी इच्छा ही महान बाधक


भोग और संग्रहइन दो चीजोंमें जबतक मनुष्यकी आसक्ति रहती है, तबतक ‘मुझे परमात्माकी प्राप्ति करनी है’ऐसा निश्चय भी नहीं होता, फिर परमात्माको प्राप्त करना तो दूर रहा

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां          तयाप्रहृतचेतसाम् ।

व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥

(गीता २/४४)

जबतक भोग और संग्रहमें आसक्ति है अर्थात् सांसारिक पदार्थोंसे सुख लेते रहे और रुपयोंका संग्रह बना रहेयह भावना भीतर बनी हुई है तबतक यत्न करते हुए भी परमात्मतत्त्वको नहीं जान सकते‘यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः’ (गीता १५/११) । कारण कि हृदयमें परमात्माकी जगह भोग और रुपये आकर बैठ गये ।

सांसारिक सुख भोगना है और सुख-भोगके लिये संग्रहकी आवश्यकता हैयह भोग और संग्रहकी रुचि बहुत घातक है । धनका उपयोग तो खर्च करनेमें है, चाहे अपने लिये खर्च करें, चाहे दूसरोंके लिये । परन्तु धनका संग्रह किसी कामका नहीं है । पदार्थों और रुपयोंके संग्रहकी बात तो दूर रही, ‘बहुत पढाई कर लूँ, बहुत शास्त्र पढ़ लूँ’यह (अनेक विद्याओंके संग्रहकी) भावना भी जबतक रहेगी, तबतक परमात्मतत्त्वको नहीं जान सकते, जाननेके लिये निश्चय भी नहीं कर सकते । जो अपना कल्याण चाहता है, उसकी बुद्धि एक ही होती है‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेका’ (गीता २/४१) । मुझे केवल परमात्मतत्त्वको ही प्राप्त करना हैयह निश्चय होना ही बुद्धिका एक होना है । परन्तु जो भोग और संग्रहमें आसक्त हैं, उनकी बुद्धियाँ अनन्त होती हैं और एक-एक बुद्धिकी शाखाएँ भी अनन्त होती हैं‘बहुशाखा ह्यनताश्च बुद्धयोव्यवसायिनाम्’ (गीता २/४१) । जैसे, पुत्र मिलेयह एक बुद्धि हुई और पुत्र कैसे मिले, किसी दवाईका सेवन करें या किसी मन्त्रका अनुष्ठान करें अथवा किसी सन्तका आशीर्वाद लें आदि-आदि उस बुद्धिकी कई शाखाएँ हुईं । इसी तरह धन मिल जाययह एक बुद्धि हुई और धन कैसे मिले, व्यापार करें या नौकरी करें, चोरी करें या डाका डालें, ठगाई करें या किसीको धोखा दें आदि-आदि उस बुद्धिकी कई शाखाएँ हुईं । ऐसे ही आदरकी इच्छा होगी तो आदर कैसे हो सकता है, व्याख्यान देनेसे होगा या सांसारिक सेवा करनेसे होगा आदि तरह-तरहकी शाखाएँ पैदा होंगी । यह आपको थोड़ा-सा नमूना बताया है । इस तरह भोग और संग्रहमें आसक्त मनुष्य परमात्मप्राप्तिकी इच्छा हो भी जाय, तो भी वे उसपर टिक नहीं सकेंगे ।

गीतामें भगवान्‌ने परमात्मप्राप्तिके एक निश्चयकी बड़ी विलक्षण महिमा गायी है । ‘अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्’ (गीता ९/३०)जो सांगोपांग दुराचारी है, जिसके दुराचरणमें कोई कमी नहीं है, झूठ, कपट, बेईमानी, अभक्ष्य-भक्षण, वेश्या-गमन, जुआ, चोरी, व्यभिचार आदि जितने पाप-दुराचार कहे जाते हैं, उन सबको करनेवाला है, ऐसा मनुष्य भी यदि केवल भगवान्‌का ही भजन करनेका एक निश्चय कर ले, तो भगवान्‌ कहते हैं कि उसको साधु ही मानना चाहिये‘साधुरेव स मन्तव्यः’ उसको साधु ही माननेकी भगवान्‌ आज्ञा देते हैं ! कारण क्या है कि उसने परमात्मप्राप्तिका एक निश्चय कर लिया है‘सम्यग्व्यवसितो हि सः’ । उसका एक लक्ष्य बन गया है कि अब चाहे कुछ भी हो जाय, एक भगवान्‌की तरफ ही चलना है ।