यहाँ एक शंका पैदा होती है कि भोग और संग्रहमें आसक्त हैं,
उनका तो परमात्मप्राप्तिका एक निश्चय नहीं हो सकता; और पापी-से-पापी भी ऐसा निश्चय
कर सकता है—इन दोनों
बातोंमें परस्पर विरोध प्रतीत होता है । वास्तवमें विरोध नहीं है; क्योंकि पापीके
लिये भगवान्ने ‘अपि चेत्’ पद दिये हैं । तात्पर्य
है कि यद्यपि पापी मनुष्य भगवान्का भजन नहीं करते—‘पापवंत कर सहज सुभाऊ । भजनु मोर तेहि भाव न काऊ
॥’ (मानस ५/४४/२), ‘न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः’ (गीता ७/१५), तथापि अगर वे भगवान्के भजनमें लगना चाहें तो लग सकते हैं । भगवान्की तरफसे
किसीको मना नहीं है । इसलिये अगर पापी मनुष्य भी भगवान्के भजनमें लगनेका पक्का
निश्चय कर ले तो उसको साधु मान लेना चाहिये । कारण कि वास्तवमें भगवान्का अंश
होनेसे जीव शुद्ध, निर्दोष ही है । संसारकी आसक्तिके कारण उसमें दोष आ जाते हैं ।
अगर वह संसारकी आसक्ति मिटा दे तो उसका शुद्ध स्वरूप रह जायगा । आजकल पारमार्थिक बातें कहने-सुननेपर भी भगवान्की तरफ चलनेका
निश्चय नहीं होता—इसका कारण यह है कि हृदयमें रुपयोंका महत्त्व बैठा हुआ है ।
वास्तवमें रुपये इतने नहीं अटकाते, जितना भोगोंका महत्त्व अटकाता है । जबतक हृदयमें पदार्थोंका, मान-बड़ाईका, आदर-सत्कारका,
निरोगताका, शरीरके आरामका महत्त्व बैठा हुआ है, तबतक मनुष्य परमात्मप्राप्तिका
निश्चय नहीं कर सकता । चाहे वह कितनी ही बातें बना ले,
कितना ही बड़ा पण्डित बन जाय, बाहरसे कैसा ही विरक्त और त्यागी बन जाय, पर मनमें
जबतक मान-बड़ाईकी, सुख-आरामकी, कीर्तिकी इच्छा है, तबतक वह पारमार्थिक मार्गमें आगे
नहीं बढ़ सकता । कारण कि जहाँ परमात्माकी रुचि होनी चाहिये वहाँ भोग और संग्रहकी
रुचि हो गयी । भोग और संग्रहके द्वारा उनका चित्त अपहृत हो गया—‘अपहृतचेतासाम्’ (गीता २/४४) । उनके चित्तका हरण हो गया ! बड़ी भारी चोरी हो गयी बेचारोंकी
! उनके पासमें जो शक्ति थी, वह भोग और संग्रहमें लग गयी । परन्तु उनको मिलेगा कुछ
नहीं । एक कौड़ी भी नहीं मिलेगी । केवल धोखा होगा, धोखा ! परमात्माकी प्राप्तिसे
रीते रह जायँगे ! मान-बड़ाई कितने दिन होगी और होकर भी क्या निहाल करेगी ? भोग
कितने दिन भोगेंगे ? संग्रह कितने दिन रहेगा ? यहाँ इकठ्ठा किया हुआ धन यहीं रह
जायगा और उम्र खत्म हो जायगी ! अगर परमात्माकी प्राप्ति चाहते हो तो भोग और
संग्रहको महत्त्व मत दो । आजकल तो रुपयोंकी अपेक्षा उनकी संख्याको अधिक महत्त्व दे
रहे हैं कि हम लखपति हो जायँ, करोड़पति हो जायँ, हमारे पास इतना संग्रह हो जाय ।
पासमें जो रुपये हैं, उनको खर्च नहीं कर सकते कि संख्या कम न हो जाय । अपने लड़कोंको यह शिक्षा देते हैं कि जितना कमाओ, उसीमेंसे
खर्च करो, मूलधनको मत छेड़ो । मूलधनको ज्यों-का-त्यों रहने दो, उसको खर्च मत करो ।
कोई पूँजीमेंसे खर्च करे तो कहेंगे कि ‘तुम्हारेमें अक्ल नहीं है, मूल पूँजी खर्च
करते हो !’ मूलधन आपके क्या काम आयेगा ? उसमें क्या तूली (आग) लगाओगे ? पर उसको
खर्च नहीं करेंगे । जो नरकोंमें ले जानेवाली चीज है, वह
कैसे खर्च की जाय ! उसको खर्च कर देंगे तो दुर्गति कौन करेगा ! अब ऐसे आदमी
परमात्माकी प्राप्ति कैसे कर सकते हैं ?
साधु हो चाहे गृहस्थ हो; पढ़ा-लिखा हो, चाहे मूर्ख हो; भाई
हो, चाहे बहन हो; जबतक संग्रह करनेकी और ‘संग्रह बना रहे’ इसकी रुचि रहेगी, तबतक
वह पारमार्थिक मार्गपर नहीं चल सकता । अगर आपके भीतर संग्रहकी रुचि नहीं है, तो
आपके पास चाहे लाखों-करोड़ों रुपये हों, पर वे आपको अटका नहीं सकते । बैंकोंमें बहुत रुपये पड़े हैं,
पर वे हमारेको अटकाते नहीं । मकान बहुत हैं, पर वे हमारेको अटकाते नहीं । क्यों
नहीं अटकाते कि उनमें हमारी ममता नहीं है, उनकी प्राप्तिकी इच्छा नहीं है । अगर
हमारी इच्छा हो जायगी तो हम फँस जायँगे । |