जिन थोड़े-से आदमियोंको हमने अपना मान रखा है, जिस मकानको हमने अपना मान रखा है, उसीसे हम बँधे हुए हैं । जिन मनुष्योंको हमने अपना नहीं माना है, वे मर भी जायँ तो हमारेपर असर नहीं पड़ेगा । जिन रुपयोंको हमने अपना नहीं
माना है, वे चाहे चले जायँ, नष्ट भी हो
जाय तो हमारेपर असर नहीं पड़ेगा । जिन मकानोंको हमने अपना नहीं माना है, वे सब धराशायी भी हो जायँ तो हमारेपर असर नहीं पड़ेगा । अतः ज्यादा संसारसे
तो हम मुक्त ही हैं, थोड़े-से आदमियोंसे, थोड़े-से रुपयों, थोड़े-से मकानोंमें हम फँसे हुए हैं
। अगर इन थोड़े-से आदमियों आदिकी ममताका त्याग कर दें तो निहाल हो जायँ ! हमारी
ज्यादा मुक्ति तो हो चुकी है, थोड़ी-सी मुक्ति बाकी है । बन्धन ज्यादा नहीं है । ज्यादा बन्धन तो छूटा हुआ है । जिनमें आपकी ममता नहीं है, उनसे आप
बन्धनरहित हो और जिनमें आप ममता कर लेते हो, उनमें आप बँध
जाते हो । परन्तु आपकी चाल यही है कि ज्यादा
व्यक्तियोंमें, पदार्थोंमें ममता हो जाय । ऐसी इच्छा नहीं
रखेंगे तो फँसेंगे कैसे ! इसलिये अधिक भोग मिल जाय, अधिक
संग्रह हो जाय—इस तरह
इच्छा करते रहते हैं । इच्छा करनेसे पदार्थ मिलेगा नहीं । अगर मिल भी जाय तो
टिकेगा नहीं और टिक भी जाय तो आप नहीं टिकोगे । परन्तु बन्धन तो हो ही जायगा ।
मरनेके बाद भी छूट सकोगे नहीं । अब नफा-नुकसान आप सोच लो । मैं-मैं
बुरी बलाय है, सको तो निकसो भाग । कबतक निबहे रामजी,
रुई लपेटी आग ॥ रुईमें लपेटी आग कितनी देर ठहरेगी ? जिन पदार्थोंमें आप मैं-मेरापन करते हो वे
कितने दिन ठहरेंगे ? वे तो ठहरेंगे नहीं, पर आपका पतन कर देंगे—इसमें
सन्देह नहीं । इसलिये हरेक भाई-बहनके लिये बहुत आवश्यक है कि वह संसारके भोग और
संग्रहकी इच्छाको भीतरसे त्याग दें । भीतरसे पदार्थोंकी इच्छाका त्याग करनेपर पदार्थ प्रारब्धके अनुसार अपने-आप आते हैं । इच्छा रखनेपर रुपये-पैसे, भोग-आराम मेहनतसे, बड़ी कठिनाईसे प्राप्त होते हैं । इच्छा करनेसे उनकी प्राप्तिमें बाधा लगती
है और परमार्थमें बाधा तो लगती ही है । इच्छा रहनेपर तो रुपयोंके मिलनेसे हम अपनी सफलता मानते हैं, पर यदि इच्छा न रहे तो रुपये हमारे पास आकर
सफल होंगे, हमारेमें रुपयोंकी गुलामी नहीं रहेगी । आप परमात्मतत्त्वमें अपनी नित्य-निरन्तर
स्थितिका अनुभव करना चाहते हो तो उत्पत्ति-विनाशवाले वस्तुओंका आकर्षण मिटाओ ।
नाशवान् वस्तुओंका आकर्षण मिटते ही अविनाशीकी तरफ स्वतः आकर्षण हो जायगा और उसकी
प्राप्ति हो जायगी । अगर
उत्पन्न और नष्ट होनेवालोंमें फँसे रहोगे तो सदा साथमें रहता हुआ भी अनुत्पन्न
तत्त्व नहीं मिलेगा । उससे वञ्चित रह जाओगे और कुछ नहीं होगा । न धन मिलेगा, न धन रहेगा; न भोग
मिलेंगे, न भोग रहेंगे औए न आप रहोगे । केवल बन्धन-ही-बन्धन
रहेगा । मैं रुपयोंका विरोध नहीं करता, उनकी गुलामीका विरोध करता हूँ । न्याययुक्त कमाते हुए लाखों-करोड़ों रुपये आ जायँ तो
प्रसन्नता रहे और लाखों-करोड़ों रुपये चले जायँ तो भी प्रसन्नता रहे । तब तो आप ‘धनपति’ (धनके मालिक) हैं । परन्तु रुपये आ जायँ तो प्रसन्न हो जाओ और रुपये चले
जायँ तो रोने लग जाओ, तब आप ‘धनदास’
(धनके गुलाम) हो; धनपति नहीं हो, नहीं हो, नहीं हो । रुपयोंके जानेसे रोने लग जाते हो
कि हमारा मालिक (रुपया) चला गया, अब उसके बिना कैसे रहा जाय
! अरे, रुपये चले गये तो क्या हुआ, जिसने
रुपये कमाए थे वह तो मौजूद ही है । परन्तु यह बात अक्लमें नहीं आती; क्योंकि धनको आपने अपना इष्टदेव मान रखा है । जिसने धनको अपना इष्टदेव
बनाया हुआ है, उसको धनकी प्राप्तिके लिये झूठ, कपट, बेईमानी, धोखेबाजी आदिको
अपना इष्ट बनाना पड़ता है; क्योंकि उसका यह भाव रहता है कि
इनके बिना पैसा पैदा नहीं होता । अतः हे झूठ देवता ! हे कपट देवता ! हे ब्लैक
देवता ! आप निहाल करें—ऐसी उसकी
भक्ति होती है । जैसे भगवान्का भक्त भगवान्को याद करता है, उनका आश्रय लेता है,
ऐसे ही धनका भक्त झूठ, कपट, ठगी आदिका
आश्रय लेता है, उसको कोई समझाये तो वह कहेगा कि आजके
जमानेमें झूठ, कपटके बिना काम नहीं चलता । अब ऐसे आदमीको
ब्रह्माजी भी समझा नहीं सकेंगे ! इसलिये अगर
परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति करना चाहते हो तो भोग और संग्रहकी इच्छाका त्याग करना ही
पड़ेगा, नहीं तो
परमात्मप्राप्ति दूर रही, परमात्मप्राप्तिका निश्चय भी नहीं
कर सकोगे ।
नारायण ! नारायण
! नारायण ! |