।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   वैषाख शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

गीता-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर


प्रश्नभगवान्‌ने गीतामें तीन जगह (३ । ३, १४ । ६ और १५ । २०में) अर्जुनके लिये ‘अनघ’ सम्बोधनका प्रयोग किया है, जिससे सिद्ध होता है कि भगवान्‌ अर्जुनको पापरहित मानते हैं, तो फिर ‘मैं तेरेको सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा’ (१८ । ६६)‒यह कहना कैसे ?

उत्तर‒जो भगवान्‌के सम्मुख हो जाता है, उसके पाप समाप्त हो जाते हैं । अर्जुन (२ । ७में) भगवान्‌के सम्मुख हुए थे; अतः वे पापरहित थे और भगवान्‌की दृष्टिमें भी अर्जुन पापरहित थे । परन्तु अर्जुन यह मानते थे कि युद्धमें कुटुम्बियोंको मारनेसे मेरेको पाप लगेगा (१ । ३६, ३९, ४५) । अर्जुनकी इस मान्यताको लेकर ही भगवान्‌ कहते हैं कि ‘मैं तेरेको सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा ।’

प्रश्न‒अर्जुनने जब पहले ही यह कह दिया था कि ‘मेरा मोह चला गया’–‘मोहोऽयं विगतो मम’ (११ । १), तो फिर दुबारा यह कहनेकी क्या आवश्यकता थी कि ‘मेरा मोह नष्ट हो गया’ नष्टो मोहः’ (१८ । ७३) ?

उत्तरजब साधन करते-करते साधकको पारमार्थिक विलक्षणताका अनुभव होने लगता है, तब उसको यही मालूम देता है कि उस तत्त्वको मैं ठीक तरहसे जान गया हूँ; पर वास्तवमें पूर्णताकी प्राप्तिमें कमी रहती है । इसी तरह जब अर्जुनने दूसरे अध्यायसे दसवें अध्यायतक भगवान्‌के विलक्षण प्रभाव आदिकी बातें सुनीं, तब वे बहुत प्रसन्न हुए । उनको यही मालूम हुआ कि मेरा मोह चला गया; अतः उन्होंने अपनी दृष्टिसे ‘मोहोऽयं विगतो मम’ कह दिया । परन्तु भगवान्‌ने इस बातको स्वीकार नहीं किया । आगे जब अर्जुन भगवान्‌के विश्वरूपको देखकर भयभीत हो गये, तब भगवान्‌ने कहा कि यह तेरा मूढ़भाव (मोह) है; अतः तेरेको मोहित नहीं होना चाहिये‒‘मा च विमूढभावः’ (११ । ४९) । भगवान्‌के इस वचनसे यही सिद्ध होता है कि अर्जुनका मोह सर्वथा नहीं गया था  परन्तु आगे जब अर्जुनने सर्वगुह्यतमवाली बातको सुनकर कहा कि आपकी कृपासे मेरा मोह नष्ट हो गया और मुझे स्मृति प्राप्त हो गयी‒‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत’ (१८ । ७३) तब भगवान्‌ कुछ बोले नहीं, मौन रहे और उन्होंने आगे उपदेश देना समाप्त कर दिया । इससे सिद्ध होता है कि भगवान्‌ने अर्जुनके मोहनाशको स्वीकार कर लिया 

प्रश्नगीताके अन्तमें संजयने केवल विराट्‌रूपका ही स्मरण क्यों किया (१८ । ७७) चतुर्भुजरूपका स्मरण क्यों नहीं किया ?

उत्तर‒भगवान्‌का चतुर्भुजरूप तो प्रसिद्ध है, पर विराट्‌रूप उतना प्रसिद्ध नहीं है । चतुर्भुजरूप उतना दुर्लभ भी नहीं है, जितना विराट्‌रूप दुर्लभ है, क्योंकि भगवान्‌ने चतुर्भुजरूपको देखनेका उपाय बताया है (११ । ५४), पर विराट्‌रूपको देखनेका उपाय बताया ही नहीं । अतः संजय अत्यन्त अद्‌भुत विराट्‌रूपका ही स्मरण करते हैं ।