।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   वैषाख शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७९, बुधवार

गीता-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर


प्रश्नअर्जुनका मोह सर्वथा नष्ट हो गया था और मोह नष्ट होनेपर फिर मोह हो ही नहीं सकता–‘यज्ज्ञात्वा न  पुनर्मोहमेवं यास्यसि’ (४ । ३५) । परन्तु जब अभिमन्यु मारा गया, तब अर्जुनको कौटुम्बिक मोह क्यों हुआ ?

उत्तरवह मोह नहीं था, प्रत्युत शिक्षा थी । मोह नष्ट होनेके बाद महापुरुषोंके द्वारा जो कुछ आचरण होता है, वह संसारके लिये शिक्षा होती है, आदर्श होता है । अभिमन्युके मारे जानेपर कुन्ती, सुभद्रा, उत्तरा आदि बहुत दुःखी हो रही थीं; अतः उनका दुःख दूर करनेके लिये अर्जुनके द्वारा मोह-शोकका नाटक हुआ था, लीला हुई थी । इसका प्रमाण यह है कि अभिमन्युके मारे जानेपर अर्जुनने जयद्रथको मारनेके लिये जो-जो प्रतिज्ञाएँ की हैं, वे सब शास्त्रों और स्मृतियोंकी बातोंको लेकर ही की गयी हैं (महाभारत, द्रोण ७३ । २५‒४५) । अगर अर्जुनपर मोह, शोक ही छाया हुआ होता तो उनको शास्त्रों और स्मृतियोंकी बातें कैसे याद रहतीं ? इतनी सावधानी कैसे रहती ? कारण कि मोह होनेपर मनुष्यको पुरानी बातें याद नहीं रहतीं और आगे नया विचार भी नहीं होता (२ । ६३), पर अर्जुनको सब बातें याद थीं, वे शोकमें नहीं बहे । इससे यही सिद्ध होता है कि अर्जुनका शोक करना नाटकमात्र, लीलामात्र ही था ।

प्रश्न‒अनुगीतामें भगवान्‌ने कहा है कि उस समय मैंने योगमें स्थित होकर गीता कही थी, पर अब मैं वैसी बातें नहीं कह सकता (महाभारत, आश्वमेधिक १६ । १२-१३), तो क्या भगवान्‌ भी कभी योगमें स्थित रहते हैं और कभी योगमें स्थित नहीं रहते ? क्या भगवान्‌का ज्ञान भी आगन्तुक है ?

उत्तरजैसे बछड़ा गायका दूध पीने लगता है तो गायके शरीरमें रहनेवाला दूध स्तनोंमें आ जाता है, ऐसे ही श्रोता उत्कण्ठित होकर जिज्ञासापूर्वक कोई बात पूछता है तो वक्ताके भीतर विशेष भाव स्फुरित होने लगते हैं । गीतामें अर्जुनने उत्कण्ठा और व्याकुलतापूर्वक अपने कल्याणकी बातें पूछी थीं, जिससे भगवान्‌के भीतर विशेषतासे भाव पैदा हुए थे । परन्तु अनुगीतामें अर्जुनकी उतनी उत्कण्ठा, व्याकुलता नहीं थी । अतः गीतामें जैसा रसीला वर्णन आया है, वैसा वर्णन अनुगीतामें नहीं आया ।

प्रश्नजैसे गीतामें (दसवें अध्यायमें) भगवान्‌ने अर्जुनसे अपनी विभूतियाँ कही हैं, ऐसे ही श्रीमद्भागवतमें  (ग्यारहवें स्कन्धके सोलहवें अध्यायमें) भगवान्‌ने उद्धवजीसे अपनी विभूतियाँ कही हैं । जब गीता और भागवत‒दोनोंमें कही हुई विभूतियोंके वक्ता भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही हैं, तो फिर दोनोंमें कही हुई विभूतियोंमें अन्तर क्यों है ?

उत्तरवास्तवमें विभूतियाँ कहनेमें भगवान्‌का तात्पर्य किसी वस्तु, व्यक्ति आदिका महत्त्व बतानेमें नहीं है, प्रत्युत अपना चिन्तन करानेमें है । अतः गीता और भागवत‒दोनों ही जगह कही हुई विभूतियोंमें भगवान्‌का चिन्तन करना ही मुख्य है । इस दृष्टिसे जहाँ-जहाँ विशेषता दिखायी दे, वहाँ-वहाँ वस्तु, व्यक्ति आदिकी विशेषता न देखकर केवल भगवान्‌की ही विशेषता देखनी चाहिये और भगवान्‌की ही तरफ वृत्ति जानी चाहिये । तात्पर्य है कि मन जहाँ-कहीं चला जाय, वहाँ भगवान्‌का ही चिन्तन होना चाहिये‒इसके लिये ही भगवान्‌ने विभूतियोंका वर्णन किया है (१० । ४१) ।