।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
      ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७९, गुरुवार

गीतामें भगवन्नाम


प्रश्न‒श्रद्धा-विश्वासके बिना भी अग्‍निको छूनेसे हाथ जल जाता है, फिर श्रद्धा-विश्वासके बिना नाम लेनेसे उसकी महिमा तत्काल प्रकट क्यों नहीं होती ?

उतर‒अग्‍नि भौतिक वस्तु है और वह भौतिक वस्तुओंको ही जलाती है; परन्तु भगवान्‌का नाम अलौकिक, दिव्य है । नामजप करनेवालेका नाममें ज्यों-ज्यों भाव बढ़ता है, त्यों-त्यों उसके सामने नामकी महिमा प्रकट होने लगती है, उसको नाम-महिमाकी अनुभूति होने लगती है, नाममें विचित्रता, अलौकिकता दीखने लगती है । नाममें एक विचित्रता है कि मनुष्य बिना भाव, श्रद्धाके भी हरदम नाम लेता रहे तो उसके सामने नामकी शक्ति प्रकट हो जायगी, पर उसमें समय लग सकता है ।

प्रश्न‒क्या एक बार नाम लेनेसे ही सब पाप नष्ट हो जाते हैं ?

उत्तर‒हाँ, आर्तभावसे लिये हुए एक नामसे ही सब पाप नष्ट हो जाते हैं । मनुष्यको अन्तसमयमें मृत्युसे छुड़ानेवाला कोई भी नहीं दीखता, वह सब तरफसे निराश हो जाता है, उस समय आर्तभावसे उसके मुखसे एक नाम भी निकलता है तो वह एक ही नाम उसके सम्पूर्ण पापोंको नष्ट कर देता है । जैसे गजेन्द्रको ग्राह खींचकर जलमें ले जा रहा था । गजेन्द्रने देखा कि अब मुझे कोई छुड़ानेवाला नहीं है, अब तो मौत आ गयी है, तो उसने आर्तभावसे एक ही बार नाम लिया । नाम लेते ही भगवान्‌ आ गये और उन्होंने ग्राहको मारकर गजेन्द्रको छुड़ा लिया ।

जिसका भगवान्‌के नाममें अटूट श्रद्धा-विश्वास है, अनन्यभाव है, उसका एक ही नामसे कल्याण हो जाता है ।

प्रश्न‒जब एक ही नामसे सब पाप नष्ट हो जाते हैं, तो फिर बार-बार नाम लेनेकी क्या आवश्यकता है ?

उत्तर‒बार-बार नाम लेनेसे ही वह एक आर्तभाववाला नाम निकलता है । जैसे मोटरके इंजनको चालू करनेके लिये बार-बार हैण्डल घुमाते है तो हैण्डलको पहली बार घुमानेसे इंजन चालू होगा या पाँचवीं, दसवीं अथवा पंद्रहवीं बार घुमानेसे इंजन चालू होगा‒इसका कोई पता नहीं रहता । परन्तु हैण्डलको बार-बार घुमाते रहनेसे किसी-न-किसी घुमावमें इंजन चालू हो जाता है । ऐसे ही बार-बार भगवन्नाम लेते रहनेसे कभी-न-कभी वह आर्तभाववाला एक नाम आ ही जाता है । अतः बार-बार नाम लेना बहुत जरूरी है ।

प्रश्न‒जो मनुष्य नामजप तो करता है, पर उसके द्वारा निषिद्ध-कर्म भी होते हैं, उसका उद्धार होगा या नहीं ?

उत्तर‒समय पाकर उसका उद्धार तो होगा ही; क्योंकि किसी भी तरहसे लिया हुआ भगवन्नाम निष्फल नहीं जाता । परन्तु नामजपका जो प्रत्यक्ष प्रभाव है, वह उसके देखनेमें नहीं आयेगा । वास्तवमें देखा जाय तो जिसका एक परमात्माको ही प्राप्त करनेका ध्येय नहीं है, उसीके द्वारा निषिद्ध कर्म होते हैं । जिसका ध्येय एक परमात्मप्राप्तिका ही है, उसके द्वारा निषिद्ध कर्म हो ही नहीं सकते । जैसे, जिसका ध्येय पैसोंका हो जाता है, वह फिर ऐसा कोई काम नहीं करता, जिससे पैसे नष्ट होते हों । वह पैसोंका नुकसान नहीं सह सकता; और कभी किसी कारणवश पैसे नष्ट हो जायँ तो वह बेचैन हो जाता है । ऐसे ही जिसका ध्येय परमात्मप्राप्तिका बन जाता है, वह फिर साधनसे विपरीत काम नहीं कर सकता । अगर उसके द्वारा साधनसे विपरीत कर्म होते हैं तो इससे सिद्ध होता है कि अभी उसका ध्येय परमात्मप्राप्ति नहीं बना है ।

साधकको चाहिये कि वह परमात्मप्राप्तिका ध्येय दृढ़ बनाये और नाम-जप करता रहे तो फिर उससे निषिद्ध क्रिया नहीं होगी । कभी निषिद्ध क्रिया हो भी जायगी तो उसका बहुत पश्चात्ताप होगा, जिससे वह फिर आगे कभी नहीं होगी ।