प्रश्न‒जिसके
पाप बहुत है, वह भगवान्का नाम
नहीं ले सकता; अतः वह क्या करे
? उत्तर‒बात सच्ची है । जिसके अधिक पाप होते हैं, वह भगवान्का नाम नहीं ले सकता । वैष्णवे
भगवद्द्भक्तौ प्रसादे हरिनाम्नि च । अल्पपुण्यवतां श्रद्धा यथावन्नैव जायते ॥ अर्थात् जिसका पुण्य थोड़ा होता है, उसकी भक्तोंमें, भक्तिमें, भगवत्प्रसादमें और भगवन्नाममें श्रद्धा नहीं होती
। जैसे पित्तका जोर होनेपर रोगीको मिश्री भी कड़वी लगती है । परन्तु
यदि वह मिश्रीका सेवन करता रहे तो पित्त शान्त हो जाता है और मिश्री मीठी लगने लग जाती
है । ऐसे ही पाप अधिक होनेसे नाम अच्छा नहीं लगता; परन्तु
नामजप करना शुरू कर दें तो पाप नष्ट हो जायँगे और नाम अच्छा, मीठा
लगने लग जायगा तथा नामजपका प्रत्यक्ष लाभ भी दीखने लग जायगा । प्रश्न‒जिसके
भाग्यमें नाम लेना लिखा है, वह
तो नाम ले सकता है, उसके मुखसे नाम निकल
सकता है; परन्तु जिसके भाग्यमें
नाम लेना लिखा ही नहीं, वह कैसे नाम ले सकता
है ? उत्तर‒एक ‘होना’ होता है और एक ‘करना’ होता है । भाग्य अर्थात् पुराने कर्मोंका फल होता है और
नये कर्म किये जाते हैं, होते नहीं । जैसे व्यापार करते हैं और नफा-नुकसान होता है;
खेती करते हैं और लाभ-हानि होती है;
मन्त्रका सकामभावसे जप (अनुष्ठान) करते हैं और उसका नीरोगता
आदि फल होता है । बद्रीनारायण जाते हैं‒यह ‘करना’ हुआ और चलते-चलते बद्रीनारायण पहुँच जाते हैं‒यह ‘होना’
हुआ । दवा लेते है‒यह ‘करना’ हुआ और शरीर स्वस्थ या अस्वस्थ होता है‒यह ‘होना’ हुआ । हानि-लाभ, जीना-मरना, यश-अपयश‒ये सब होनेवाले हैं; क्योंकि ये पूर्वजन्ममें किये हुए कर्मोंके फल है[*] । परन्तु नामजप करना नया काम है । यह करनेका है,
होनेका नहीं । इसको करनेमें सब स्वतन्त्र हैं । हाँ,
इसमें इतनी बात होती है कि अगर किसीने पहले नामजप किया हुआ है
तो नामजपकी महिमा सुनते ही उसकी नामजपमें रुचि हो जायगी और वह सुगमतासे होने लग जायगा
। परन्तु पहले जिसका नामजप किया हुआ नहीं है, वह अगर नामकी महिमा सुने तो उसकी नामजपमें जल्दी रुचि नहीं होगी
। अगर नामजपकी महिमा कहनेवाला अनुभवी हो तो सुननेवालेकी भी नाममें रुचि हो जायगी और
उस अनुभवीके संगमें रहनेसे उसके लिये नामजप करना भी सुगम हो जायगा । जो भाग्यमें लिखा है, वह फल होता है, नया कर्म नहीं । नामजप करना शुरू कर दें तो वह होने लग जायगा;
क्योंकि नामजप करना नया कर्म, नयी उपासना है । अतः ‘हमारे भाग्यमें नामजप करना, सत्संग
करना, शुभ-कर्म
करना लिखा हुआ नहीं है’‒ऐसा कहना बिलकुल बहानेबाजी है । ‘नामजप, सत्संग
आदि हमारे भाग्यमें नहीं हैं’‒ऐसा भाव रखना कुसंग है, जो
नामजप आदि करनेके भावका नाश करनेवाला है ।
[*] सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ । हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ ॥ (मानस २ । १७१) |