प्रश्न‒भूत
आदि योनि न मिले, इसके लिये मनुष्यको
क्या करना चाहिये ? उत्तर‒मनुष्यशरीर केवल परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है । अतः मनुष्यको
सांसारिक भोग और संग्रहकी आसक्तिमें न फँसकर परमात्माके शरण हो जाना चाहिये; इसीसे
वह अधोगतिसे, भूत-प्रेतकी योनिसे बच सकता है । प्रश्न‒भूत-प्रेत
और पितरमें क्या अन्तर है ? उत्तर‒ऐसे तो भूत, प्रेत, पिशाच, पितर आदि सभी देवयोनि कहलाते हैं[*] , पर उनमें भी कई भेद होते हैं । भूत-प्रेतोंका शरीर वायुप्रधान
होता है;
अतः वे हरेकको नहीं दीखते । हाँ, अगर वे स्वयं किसीको अपना रूप
दिखाना चाहें तो दिखा सकते हैं । उनको मल-मूत्र आदि अशुद्ध चीजें खानी पड़ती हैं । वे
शुद्ध अन्न-जल नहीं खा सकते, परन्तु कोई उनके नामसे शुद्ध पदार्थ दे तो वे खा सकते हैं ।
भूत-प्रेतोंके शरीरोंसे दुर्गन्ध आती है । पितर भूत-प्रेतोंसे ऊँचे माने जाते हैं । पितर प्रायः अपने कुटुम्बके
साथ ही सम्बन्ध रखते हैं और उसकी रक्षा, सहायता करते हैं । वे कुटुम्बियोंको व्यापार आदिकी बात बता देते
हैं,
उनको अच्छी सम्मति देते हैं, अगर घरवाले बँटवारा करना चाहें तो उनका बँटवारा कर देते हैं,
आदि । पितर गायके दूधसे बनी गरम-गरम खीर खाते हैं,
गंगाजल जैसा ठंडा जल पीते हैं,
शुद्ध पदार्थ ग्रहण करते हैं । कई पितर घरवालोंको दुःख भी देते
हैं,
तंग भी करते हैं, तो यह उनके स्वभावका भेद है । जैसे मनुष्योंमें चारों वर्णोंका, ऊँच-नीचका, स्वभावका
भेद रहता है, ऐसे ही पितर, भूत, प्रेत, पिशाच आदिमें भी वर्ण, जाति आदिका भेद रहता है । प्रश्न‒कौन-से
मनुष्य मरनेके बाद भूत-प्रेत बनते है ? उत्तर‒जिन मनुष्योंका खान-पान अशुद्ध होता है, जिनके
आचरण खराब होते हैं, जो दुर्गुण-दुराचारोंमें लगे रहते हैं, जिनका
दूसरोंको दुःख देनेका स्वभाव है, जो केवल अपनी ही जिद रखते हैं, ऐसे
मनुष्य मरनेके बाद क्रूर स्वभाववाले भूत-प्रेत बनते हैं । ये जिनमें प्रविष्ट होते हैं,
उनको बहुत दुःख देते हैं और मन्त्र आदिसे भी जल्दी नहीं निकलते
। जिन मनुष्योंका स्वभाव सौम्य है,
दूसरोंको दुःख देनेका नहीं है;
परन्तु सांसारिक वस्तु, स्त्री, पुत्र, धन,
जमीन आदिमें जिनकी ममता-आसक्ति रहती है, ऐसे मनुष्य मरनेके बाद सौम्य स्वभाववाले भूत-प्रेत
बनते हैं । ये किसीमें प्रविष्ट
हो जाते हैं तो उसको दुःख नहीं देते और अपनी गतिका उपाय भी बता देते हैं । जिनको विद्या आदिका बहुत अभिमान, मद
होता है; उस
अभिमानके कारण जो दूसरोंको नीचा दिखाते हैं, दूसरोंका अपमान-तिरस्कार करते हैं, दूसरोंको
कुछ भी नहीं समझते, ऐसे मनुष्य मरकर ‘ब्रह्मराक्षस’
(जिन्न) बनते हैं
। ये किसीमें प्रविष्ट हो जाते
हैं,
किसीको पकड़ लेते हैं तो बिना अपनी इच्छाके उसको छोड़ते नहीं ।
इनपर कोई तन्त्र-मन्त्र नहीं चलता । दूसरा कोई इनपर मन्त्रोंका प्रयोग करता है तो उन
मन्त्रोंको ये स्वयं बोल देते हैं ।
[*] विद्याधराऽप्सरोयक्षरक्षोगन्धर्वकिन्नराः । पिशाचो गुह्यकः सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः ॥ (अमरकोष १ । १ । ११) |