प्रश्न‒जो
भगवन्नामका जप, स्वाध्याय आदि करते हैं, वे
भी मरनेके बाद क्या भूत-प्रेत बन सकते हैं ? उत्तर‒प्रायः ऐसे मनुष्य भूत-प्रेत नहीं बनते । परन्तु नामजपमें
रुचिकी अपेक्षा जिनकी सांसारिक पदार्थोंमें,
अपनी सेवा करनेवालोंमें, अपने
अनुकूल चलनेवालोंमें ज्यादा रुचि (आसक्ति) हो जाती है और अन्तसमयमें साधनमें स्थिति
न रहकर सांसारिक पदार्थोंकी, सेवा करनेवालोंकी याद आ जाती है, वे
मरनेके बाद भूत-प्रेत बन सकते हैं । ऐसे भूत-प्रेत किसीको तंग नहीं करते, किसीकी दुःख नहीं देते । कर्मोंकी गति बड़ी ही गहन है‒‘गहना कर्मणो गतिः’
(४ ।
१७) । अतः पाप-पुण्य,
भाव आदिमें तारतम्य रहनेसे भूत-प्रेत आदिकी योनि मिल जाती है
। भगवान्ने स्वयं कहा है कि कर्म और अकर्म क्या है‒इस विषयमें बड़े-बड़े विद्वान् लोग
भी मोहित हो जाते हैं (४ । १६) । प्रश्न‒दुर्घटनामें
मरनेवाले एवं आत्महत्या करनेवाले प्रायः भूत-प्रेत क्यों बनते हैं ? उत्तर‒बीमारीमें तो ‘मेरेको मरना है’‒ऐसी सावधानी, होश रहता है;
अतः बीमार व्यक्ति संसारसे उपराम होकर भगवान्में लग सकता है
। परन्तु दुर्घटनाके समय मनमें कुछ-न-कुछ मनोरथ, चिन्तन रहता है, जिसके रहते हुए मनुष्य अचानक मर जाता है । अगर उस समय मनमें
खराब चिन्तन हो, भगवान्का चिन्तन न हो तो वह आदमी भूत-प्रेत बन जाता है ।
दुर्घटनाके समय मारनेवालेकी तरफ मनोवृत्ति होनेसे उसका चिन्तन होता है,
इस कारण भी दुर्घटनामें मरनेवाला भूत-प्रेत बन जाता है । परन्तु
जो संसारसे उपराम होकर पारमार्थिक मार्गमें लगा हुआ हो,
वह दुर्धटना आदिमें अचानक मर भी जाय,
तो भी वह भूत-प्रेत नहीं बनता । तात्पर्य है कि अन्तःकरणमें सांसारिक राग, आसक्ति, कामना, ममता
आदि रहनेसे ही मनुष्यकी अधोगति होती है । जिसके अन्तःकरणमें सांसारिक राग आदि नहीं
है, उसका
शरीर किसी भी देशमें, किसी भी जगह, किसी भी समय छूट जाय तो वह भूत-प्रेत
नहीं बनता; क्योंकि भूत-प्रेतयोनिमें ले जानेवाली सामग्री ही
उसमें नहीं होती । जो क्रोधमें आकर अथवा किसी बातसे दुःखी होकर आत्महत्या कर लेता
है,
वह दुर्गतिमें चला जाता है अर्थात् भूत-प्रेत-पिशाच बन जाता
है । आत्महत्या करनेवाला महापापी होता है । कारण कि
यह मनुष्यशरीर भगवत्प्राप्तिके लिये ही मिला है; अतः भगवत्प्राप्ति न करके अपने ही हाथसे मनुष्यशरीरको खो देना
बड़ा भारी पाप है, अपराध है, दुराचार है । दुराचारीकी सद्गति कैसे होगी ?
अतः मनुष्यको कभी भी आत्महत्या करनेका विचार मनमें
नहीं आने देना चाहिये ।
मनुष्यपर कोई बड़ी भारी आफत आ जाय,
कोई भयंकर रोग हो जाय, तो वह यही सोचता है कि अगर मैं मर जाऊँ तो सब कष्ट मिट जायँगे
। परन्तु वास्तवमें आत्महत्या करनेपर कर्मोंका भोग (कष्ट) समाप्त नहीं होता,
उसको तो किसी-न-किसी योनिमें भोगना ही पड़ेगा । आत्महत्या करके वह एक नया पापकर्म करता है, जिसके
फलस्वरूप उसको नीच योनिमें जाना पड़ेगा, भूत-प्रेत बनना पड़ेगा और हजारों वर्षोंतक दुःख
पाना पड़ेगा । |