एक वस्तुका निर्माण होता है, वस्तु बनायी जाती
है, और एक वस्तुका
अन्वेषण होता है अर्थात् वस्तु ज्यों-की-त्यों मौजूद है, केवल उसपर दृष्टि
डाली जाती है । वस्तुके निर्माणमें तो देरी लगती है, पर दृष्टि डालनेमें देरी नहीं
लगती । वस्तु खोई हुई थी अथवा उधर खयाल नहीं था, खयाल करनेसे वह मिल गयी‒इसमें
निर्माण नहीं होता । इसपर आप थोड़ा विचार करें । जहाँ निर्माण होता है, वहाँ कारक होते हैं । कारक वह
होता है, जो क्रियाका जनक हो
। क्रिया उसीमें होती है, जिसमें कुछ पैदा होता हो । परन्तु परमात्मतत्त्व स्वतः
है । भगवान्ने कहा है‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१) ‘यह पुरुष शरीरमें
रहता हुआ भी न करता है, न लिप्त होता है ।’ अहंकारसे
मोहित अन्तःकरणवाला मनुष्य अपनेको कर्ता मान लेता है‒‘अहङ्कारविमूढात्मा
कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३ । २७)। इसलिये सच्ची
बातको स्वीकार कर ले कि मैं कुछ नहीं करता हूँ‒‘नैव किञ्चित्करोमीति
युक्तो मन्येत तत्त्ववित्’(गीता ५ । ८), और‒ यस्य नाहङ्कृतो भावो
बुद्धिर्यस्य न लिप्यते । हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति
न निबध्यते ॥ (गीता १० । १७) ‘जिसका अहंकृतभाव नहीं है और जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं
होती, वह इन सम्पूर्ण
प्राणियोंको मारकर भी न मारता है और न बँधता है ।’
त्याग उसीका होता
है, जिसका सम्बन्ध नहीं है । जिसका अटल सम्बन्ध होता है, उसका त्याग नहीं
होता । तात्पर्य है कि वास्तवमें तो सम्बन्ध है नहीं, पर सम्बन्ध मान
लिया‒इस मान्यताका त्याग होता है । जैसे, सूर्यमेंसे कोई
प्रकाश नहीं निकाल सकता; क्योंकि वे एक हैं । ऐसे ही अगर स्वयंमें कर्तृत्व
होता तो निकलता नहीं । परन्तु स्वयंमें कर्तृत्व नहीं है, अहंकृतभाव नहीं है‒‘न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१) । अहंकृतभाव बनाया हुआ है, भूलसे माना हुआ है, उसको छोड़ दे तो
तत्त्व ज्यों-का-त्यों मिल जाय । इसलिये अर्जुनने कहा‒‘नष्टो मोह:
स्मृतिर्लब्धा’ ( १८ । ७३) स्मृति प्राप्त हो
गयी, याद आ गयी । कोई
बात याद आ गयी तो उसमें क्या परिश्रम करना पड़ा ? याद भी करना
नहीं पड़ता, प्रत्युत स्वतः याद आती है‒‘स्मृतिर्लब्धा’ । पहले भूल गये थे, उधर खयाल नहीं था, अब याद आ गयी, खयाल आ गया । भक्तियोगमें हम
भगवान्के हैं‒यह याद आ गयी । ज्ञानयोगमें मेरा स्वरूप निर्विकार है‒यह याद आ गयी
। कर्मयोगमें संसार मेरा और मेरे लिये नहीं है‒यह याद आ गयी । याद आना करण-सापेक्ष नहीं है, प्रत्युत करण-निरपेक्ष है ।
केवल करण-निरपेक्ष ही नहीं, कर्ता-निरपेक्ष, कर्म-निरपेक्ष,सम्प्रदान-निरपेक्ष, अपादान-निरपेक्ष और
अधिकरण-निरपेक्ष भी है । उसमें कोई कारक लागू नहीं होता । कारण कि वह क्रियासाध्य
वस्तु नहीं है, प्रत्युत
स्वतःसिद्ध है । |