।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    श्रावण शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

गीतामें मनुष्योंकी श्रेणियाँ



स्थितिभावानुसारेण विभिन्नाः सन्ति मानवाः ।

तेषु भवन्ति ते धन्याः  प्राप्तिं  कुर्वन्ति  ये हरेः ॥

श्रीमद्भगवद्‌गीताका अध्ययन, मनन करनेसे यह बात देखनेमें आती है कि मनुष्योंकी जैसी स्थिति है, भाव है, मान्यताएँ हैं, आचरण हैं, उनके अनुसार ही मनुष्योंकी अलग-अलग श्रेणियाँ हो जाती हैं अर्थात् मनुष्यजातिके (एक होते हुए भी) स्थिति, भाव साधन-पद्धति आदिके अनुसार अनेक भेद हो जाते है; जैसे‒

भगवान्‌ने पूर्वजन्मके गुणों और कर्मोंके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र‒इन चारों वर्णोंकी रचना करके इन चारों वर्णोंके अन्तर्गत ही सभी मनुष्योंको माना है (४ । १३) तथा स्वभावसे उत्पन्न हुए गुणोंके अनुसार चारों वर्णोंके मनुष्योंके नियत कर्मोंका विधान किया है (१८ । ४१-४४) । उन मनुष्योंमेंसे जो अपने कल्याणके लिये भगवान्‌का आश्रय लेते हैं, उनके आचरणोंके अनुसार भगवान्‌ने अपनी भक्तिके सात अधिकारी बताये हैं‒ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्रियाँ, पापयोनि और दुराचारी (९ । ३०-३३) । ये सातों अधिकारी किन-किन भावोंसे भगवान्‌का भजन करते हैं, उन भावोंके चार भेद करके भगवान्‌ने भक्तोंकी चार श्रेणियाँ बतायी हैं‒अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात् प्रेमी (७ । १६) । धन-सम्पत्ति, पद-अधिकार, जमीन-जायदाद आदि सांसारिक वैभवके लिये जो भगवान्‌का भजन करते हैं, वे अर्थाथी’ भक्त हैं । सांसारिक दुःख दूर करनेके लिये जो भगवान्‌को आर्तभावसे पुकारते हैं, वे आर्त’ भक्त हैं । भगवान्‌से ही अपने स्वरूपको, परमात्मतत्त्वको जाननेके लिये जो भगवान्‌का भजन करते हैं, वे जिज्ञासु’ भक्त हैं । जो केवल भगवान्‌में प्रेम करना चाहते हैं, भगवान्‌को सुख देना चाहते हैं, भगवान्‌की सेवा करना चाहते हैं, वे ‘ज्ञानी’ (प्रेमी) भक्त हैं । इन चारों प्रकारके भक्तोंको भगवान्‌ने उदार कहा है; क्योंकि ये जो कुछ भी चाहते हैं, वह भगवान्‌से ही चाहते हैं, संसारसे नहीं । ज्ञानी अर्थात्‌ प्रेमी भक्तको तो भगवान्‌ने अपनी आत्मा (स्वरूप) ही बताया है; क्योंकि उसकी भगवान्‌से कोई माँग नहीं है (७ । १८) । ऐसे प्रेमी भक्तको भगवान्‌ने दुर्लभ बताया है‒‘स महात्मा सुदुर्लभः’ (७ । १९) और सर्वश्रेष्ठ बताया है‒‘स मे युक्ततमो मतः’ (६ । ४७) । ऐसा सिद्ध भक्त राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकारोंसे रहित, अहंता-ममतासे रहित और शत्रु-मित्र, मान-अपमान, सुख-दुःख आदिमें सम रहनेवाला होता है (१२ । १३१९) ।

ज्ञानयोगी साधक सत्‌-असत्‌के ज्ञान (विवेक)-के द्वारा अपने स्वरूपका बोध चाहता है (२ । ११३०; १३ । १९३४) और इसीमें अपना पुरुषार्थ मानता है ।

सिद्ध ज्ञानयोगी सत्त्व, रज और तम‒इन तीनों गुणोंकी वृत्तियोंके आनेपर भी राग-द्वेष नहीं करता । गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं अर्थात् सम्पूर्ण क्रियाएँ गुणोंमें ही हो रही हैं‒ऐसा समझकर अपने स्वरूपमें स्थित रहता है । वह सदा ही सुख-दुःखमें सम रहता है तथा उसपर निन्दा-स्तुति, मान-अपमानका असर नहीं पड़ता (१४ । २२-२५) ।