।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
       श्रावण शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०७९, बुधवार

गीतामें मनुष्योंकी श्रेणियाँ



कर्मयोगी साधक केवल लोकसंग्रहके लिये, कर्तव्य परम्पराको सुरक्षित रखनेके लिये निष्कामभावसे अपने कर्तव्यका तत्परतासे पालन करता है अर्थात् अपने लिये कर्म न करके केवल दूसरोंके हितके लिये ही सब कर्म करता है (३ । ९) ।

सिद्ध कर्मयोगीकी अपने स्वरूपमें ही रति, तृप्ति और सन्तुष्टि रहती है । उसको न तो कर्म करनेसे मतलब रहता है और न कर्म न करनेसे ही मतलब रहता है । उसका किसी भी प्राणीके साथ स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता (३ । १७-१८) । उसकी सम्पूर्ण पदार्थ, प्राणी आदिमें समबुद्धि रहती है (६ । ८-९) ।

ध्यानयोगी साधक सम्पूर्ण इन्द्रियोंका संयम करके और एकान्तमें रहकर सगुण-साकारका, अपने स्वरूपका अथवा निर्गुण-निराकारका ध्यान करता है (६ । १०-२८) ।

सगुण-साकारके ध्यानसे सिद्ध हुआ ध्यानयोगी ‘सबमें भगवान्‌ हैं और सभी भगवान्‌में हैं’ऐसा अनुभव करता है । फिर वह सब काम करते हुए भी भगवान्‌में ही स्थित रहता है (६ । ३०-३१) । अपने स्वरूपके ध्यानसे सिद्ध हुआ ध्यानयोगी अपने-आपको सम्पूर्ण प्राणियोंमें और सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने-आपमें देखता है; अतः वह सर्वत्र समबुद्धिवाला होता है (६ । २९) । निर्गुण-निराकारके ध्यानसे सिद्ध हुआ ध्यानयोगी अपने शरीरकी उपमासे सम्पूर्ण प्राणियोंमें तथा उनके सुख-दुःखमें अपनेको समान देखता है (६ । ३२) । तात्पर्य है जैसे कि साधारण मनुष्यकी अपने शरीरकी पीड़ाको दूर करके उसको सुख पहुँचानेकी स्वाभाविक चेष्टा होती है, ऐसे ही उस ज्ञानी महापुरुषकी दूसरेका दुःख दूर करके उसको सुख पहुँचानेकी स्वाभाविक चेष्टा होती है ।

ज्ञानयोगी, कर्मयोगी, ध्यानयोगी आदि साधकोंकी अन्तसमयमें किसी कारणसे अपने साधनमें स्थिति नहीं रहे, वे अपने साधनसे विचलित हो जायँ तो वे योगभ्रष्ट हो जाते है । ऐसे योगभ्रष्ट दो प्रकारके होते हैं‒सांसारिक वासनारहित और सांसारिक वासनासहित । साधन करते हुए जिसकी सांसारिक वासनाएँ नहीं रही हैं, वह साधक अन्तसमयमें किसी विशेष कारणसे अपने साधनसे विचलित हो जाय तो वह स्वर्गादि ऊँचे लोकोंमें न जाकर सीधे ही ज्ञानवान् योगियोंके कुलमें जन्म लेता है और वहाँ पुनः साधनमें तत्परतासे लगकर सिद्धिको प्राप्त कर लेता है (६ । ४२-४३) । परन्तु साधन करते हुए भी जिसकी सांसारिक भोगोंकी वासनाएँ सर्वथा नहीं मिटी है, वह साधक अन्तकालमें किसी वासना आदिके कारणसे अपने साधनसे विचलित हो जाय तो वह स्वर्गादि ऊँचे लोकोंमें जाता है । वहाँ बहुत वर्षोंतक रहकर फिर वह शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है । वहाँ भोगोंकी बहुलताके कारण भोगोंके परवश होनेपर भी पहले मनुष्यजन्ममें किया हुआ साधन उसको पारमार्थिक मार्गमें खींच लेता है और वह लगनपूर्वक साधन करके परमगतिको प्राप्त हो जाता है (६ । ४१, ४४-४५) ।

जिनका भगवान्‌पर, पारमार्थिक साधनोंपर श्रद्धा-विश्वास नहीं है, प्रत्युत शास्त्रोक्त, वेदोक्त सकाम अनुष्ठानोंपर श्रद्धा-विश्वास है, वे देवताओंकी उपासना करते हैं और मरनेके बाद अपने-अपने शुभ-कर्मोंके अनुसार स्वर्गादि लोकोंमें जाकर वहाँका सुख भोगते हैं । पुण्य समाप्त हो जानेपर वे फिर मृत्युलोकमें लौटकर आते हैं (८ । २५; ९ । २०-२१) ।