।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
     श्रावण शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०७९, गुरुवार

गीतामें मनुष्योंकी श्रेणियाँ



जो केवल संसारका काम-धंधा करने और पशुओंकी तरह खाने-पीने, सोने आदिमें ही लगे रहते हैं, ऐसे सामान्य मनुष्योंको भगवान्‌ने ‘जन्तु’ कहा है (५ । १५) ।

जिनकी न भगवान्‌पर श्रद्धा है, न शास्त्रोंपर श्रद्धा है, न धर्मपर श्रद्धा है, न सकाम अनुष्ठानोंपर श्रद्धा है और न परलोकपर ही श्रद्धा है, ऐसे मनुष्य केवल शरीर-पोषणमें ही लगे रहते हैं । वे झूठ-कपट, चोरी-डकैती, अन्याय-अत्याचार आदि करके अपने शरीरका, प्राणोंका पोषण करते हैं, जिसके फलस्वरूप वे चौरासी लाख योनियों एवं नरकोंमें जाते हैं (१६ । ७२०) । स्वभावके भेदसे ऐसे मनुष्योंकी तीन श्रेणियाँ होती हैं‒आसुरी, राक्षसी और मोहिनी (९ । १२) । जो केवल स्वाद-शौकीनी, सुख-आराम, खेल-तमाशा, संग्रह करना, भोग भोगना आदिमें ही लगे रहते हैं, वे ‘आसुरी’ श्रेणीमें आते हैं । जो अपने स्वार्थके लिये क्रोधपूर्वक दूसरोंको दुःख देते हैं, दूसरोंको मार देते हैं, पशु-पक्षियोंको मारकर खा जाते हैं, वे ‘राक्षसी’ श्रेणीमें आते हैं । जो बिना कारण दूसरोंको दुःख देते हैं, सोते हुए कुत्तेको पत्थर या लाठी मारकर राजी होते हैं, नदी आदिमें पत्थर फेंककर राजी होते हैं, पशुओंकी तरह चिल्लाने लग जाते हैं, वे ‘मोहिनी’ श्रेणीमें आते हैं । इन तीनों श्रेणियोंमें एक-एक बातकी प्रधानता रहती है; जैसे‒आसुरी श्रेणीमें स्वार्थकी प्रधानता रहती है, पर साथमें क्रोध और मूढ़ता भी रहती है । राक्षसी श्रेणीमें क्रोधकी प्रधानता रहती है, पर साथमें स्वार्थ और मूढ़ता भी रहती है । मोहिनी श्रेणीमें मूढ़ताकी प्रधानता रहती है, पर साथमें स्वार्थ और क्रोध भी रहता है । इस प्रकार तीनों श्रेणियोंमें तीनों बातें रहते हुए भी एक-एक बातकी प्रधानता रहती है; जैसे‒

व्यक्तिगत स्वार्थके लिये लोभमें आकर राजकीय कर्मचारी देशका, नौकर मालिकका, व्यक्ति समाजका बहुत नुकसान कर देता है‒यह ‘आसुरीमें राक्षसी’ है; और स्वार्थसे अन्धे होनेके कारण देश, समाज, कुटुम्ब आदिका कितना अहित हो रहा है, इस तरफ मनुष्यका ख्याल ही नहीं जाता‒यह ‘आसुरीमें मोहिनी’ है ।

भोग भोगना और रुपये आदिका संग्रह करना‒यह ‘राक्षसीमें आसुरी’ है; और भोगोंमें, संग्रहमें, ऐश-आराममें मनुष्य इतना तन्मय हो जाता है कि हमारे देशकी क्या दशा होगी, मरनेके बाद हमारी क्या दशा होगी, इस तरफ उसका ख्याल ही नहीं जाता‒यह ‘राक्षसीमें मोहिनी’ है ।

ऐश-आराम, भोग, संग्रह करनेकी इच्छा रखना‒यह ‘मोहिनीमें आसुरी’ है; और क्रूरतापूर्वक दूसरोंका नुकसान कर देना‒यह ‘मोहिनीमें राक्षसी’ है ।

भगवान्‌ने मनुष्यको इतना अधिकार दिया है, ऐसा विलक्षण विवेक दिया है, जिससे वह प्राणिमात्रकी सेवा कर सकता है, अपना और दूसरोंका कल्याण कर सकता है, सबको शान्ति प्रदान कर सकता है, सबका पूजनीय बन सकता है और भगवान्‌को भी अपना दास बना सकता है ! परन्तु कामनाके वशीभूत होकर यह जन्म-मरणके चक्करमें चला जाता है, झूठ, कपट, बेईमानी, धोखेबाजी, अन्याय आदि करके यह पशु-पक्षी आदि नीच योनियोंमें और नरकोंमें चला जाता है‒यह कितने दुःखकी बात है ! अतः मनुष्यशरीर पाकर परमात्मतत्त्वका अनुभव कर लेना चाहिये, भगवत्प्रेमकी प्राप्ति, भगवद्दर्शन कर लेना चाहिये, इसीमें मनुष्यजन्मकी सफलता है ।