Listen साधकानां
भवत्येव बुद्धिश्च निश्चयात्मिका । भोगैश्चर्यप्रसक्तानां बुद्धयोऽनिश्चयात्मिकाः ॥ जीवात्मामें एक तो परमात्माका अंश है और एक प्रकृतिका अंश है
। जब यह जीवात्मा परमात्माको लेकर चलता है, तब इसमें व्यवसायात्मिका (एक निश्चयवाली) बुद्धि एक होती है
और जब यह प्रकृतिके अंश शरीर-संसारको लेकर चलता है, तब इसमें अव्यवसायात्मिका बुद्धियाँ अनन्त होती है (२ । ४१) । तात्पर्य है कि पारमार्थिक साधकका ‘मेरेको तो परमात्माकी प्राप्ति ही करनी है, चाहे
जो हो जाय’‒इस तरहका एक ही निश्चय होता है । परन्तु जो सांसारिक धन-सम्पत्तिका संग्रह करना और भोग भोगना
चाहते हैं, ऐसे मनुष्योंका परमात्मप्राप्तिका एक निश्चय होता ही नहीं,
प्रत्युत सांसारिक भोगोंकी प्राप्तिके लिये अनन्त विचार होते
हैं । इसका कारण यह है कि प्रापणीय परमात्मा एक ही हैं;
अतः उनकी प्राप्तिका निश्चय भी एक ही होता है । सांसारिक भोग
अनेक हैं तथा उनको भोगनेके साधन (धन-सम्पत्ति आदि) भी अनेक हैं । अतः उनकी प्राप्तिका
निश्चय भी एक नहीं होता । परमात्माके सगुण, निर्गुण आदि स्वरूपोंका भेद होनेपर भी वे सभी स्वरूप तत्त्वतः
एक ही हैं और नित्य हैं । अतः उनमें किसी एक स्वरूपकी प्राप्तिका जो निश्चय होता है,
वह भी एक ही होता है । परमात्मप्राप्तिका
एक निश्चय होनेपर सभी साधन सुगम हो जाते हैं,
सरल हो जाते हैं और उद्देश्यकी सिद्धिके लिये तत्परता
भी स्वतः हो जाती है । जैसे,
कोई अपनेको ईश्वरका भक्त मानता है,
तो ईश्वरकी भक्ति करना उसके लिये स्वाभाविक हो जाता है अर्थात्
भक्तिकी बात तो वह तत्काल पकड़ लेता है और भक्तिकी विरोधी बात वह तत्काल छोड़ देता है
। कारण कि वह यही सोचता है कि मैं भक्त हूँ, इसलिये भक्ति-विरुद्ध काम मुझे नहीं करना
है । परन्तु जिसका लक्ष्य संसार है, उसमें कभी किसीकी तो कभी किसीकी नयी-नयी इच्छा पैदा होती रहती
है । उन इच्छाओंका कभी अन्त नहीं आता; क्योंकि ज्यों-ज्यों इच्छाओंकी पूर्ति होती है,
त्यों-ही-त्यों नयी-नयी इच्छाएँ उत्पन्न होती चली जाती हैं । इस व्यवसायात्मिका (एक निश्चयवाली) बुद्धिकी ऐसी
महिमा है कि दुराचारी-से-दुराचारी, पापी-से-पापी मनुष्य भी ‘मेरेको
केवल परमात्माकी प्राप्ति ही करनी है’‒ऐसा एक निश्चय कर लेता है तो वह बहुत जल्दी धर्मात्मा
हो जाता है । केवल धर्मात्मा ही नहीं होता, उसको निरन्तर रहनेवाली शान्ति प्राप्त हो जाती है, अर्थात्
उसके उद्देश्यकी सिद्धि हो जाती है (९ । ३०-३१) । अव्यवसायात्मिका बुद्धिवाला मनुष्य कितने ही जन्म ले और एक-एक
जन्ममें भी कितना ही उद्योग, परिश्रम करे, पर उसकी इच्छाओंकी पूर्ति कभी होगी नहीं,
प्रत्युत नयी-नयी इच्छाएँ पैदा होती चली जायँगी,
जिनका कभी अन्त आयेगा ही नहीं । हाँ,
कभी किसी इच्छाकी पूर्ति हो भी जायगी तो वह आगे नयी-नयी इच्छाओंको
उत्पन्न करनेमें कारण बन जायगी ।
तात्पर्य है कि व्यवसायात्मिका बुद्धि होनेपर अव्यवसायात्मिका
बुद्धि मिट जाती है; परन्तु अव्यवसायात्मिका बुद्धिके रहते हुए व्यवसायात्मिका बुद्धि
कभी नहीं होती । अतः मनुष्यको चाहिये कि वह जल्दी-से-जल्दी
परमात्मप्राप्तिका एक निश्चय कर ले; क्योंकि केवल परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला यह
मनुष्यशरीर न जाने कब छूट जाय और हम परमात्मप्राप्तिसे वंचित रह जायँ ! |