।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    आश्विन कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

गीतामें योग और भोग



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वस्तु, व्यक्तिसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर एक सुख होता है । अगर साधक उस सुखका भोग न करे तोयोग’ हो जायगा । अगर वह उस सुखका भोग करेगा, उस सुखमें राजी हो जायगा तो योग नहीं होगा, प्रस्तुतभोग’ हो जायगा ।

अगर साधक भोगबुद्धिका सर्वथा त्याग कर दे तो सभी साधनोंसे योग’ (परमात्माके नित्य-सम्बन्धका अनुभव) हो जाता है । जैसे‒कर्मयोगमें केवल सृष्टिचक्रकी मर्यादाको सुरक्षित रखनेके लिये, केवल कर्तव्य-परम्पराकी रक्षाके लिये ही निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करनेसे कर्मोंका प्रवाह केवल संसारकी तरफ हो जाता है और स्वयंका कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होकर, भोगका त्याग होकर परमात्माके साथ योग हो जाता है (४ । २३) ।

ज्ञानयोगमें सत्-असत्‌के विवेक-विचारसे वस्तु, व्यक्ति, क्रिया आदि परिवर्तनशीलसे सम्बन्ध-विच्छेद होता है, जिससे परमात्माके साथ योग हो जाता है अर्थात् परमात्माके साथ अपनी स्वतःसिद्ध अभिन्‍नताका अनुभव हो जाता है (१३ । २३,३४) ।

भक्तियोगमें सम्पूर्ण क्रिया, पदार्थ आदिको भगवान्‌का ही समझकर भगवान्‌को अर्पित किया जाता है, जिससे उन क्रिया, पदार्थ आदिसे सम्बन्ध-विच्छेद होकर भगवान्‌के साथ योग हो जाता है अर्थात् भगवान्‌में आत्मीयता हो जाती है (९ । २७-२८) ।

ध्यानयोगमें निरन्तर परमात्मामें मन लगाते-लगाते जब मन संसारसे सर्वथा उपराम हो जाता है, केवल ध्येय वस्तु रह जाती है, तब परमात्माके साथ योग हो जाता है, अपने स्वरूपका अनुभव हो जाता है (६ । २०,२८) ।

अष्टाङ्गयोगमें क्रमशः यम, नियम आदि आठों अङ्गोंका निष्कामभावपूर्वक पालन किया जाय तो उससे संसारके सम्बन्धका त्याग हो जाता है और परमात्माके साथ योग हो जाता है (५ । २७-२८) । परन्तु उसमें साधकको विशेष सावधानी रखनी चाहिये कि कहीं वह सिद्धियोंमें न फँस जाय । अगर वह सिद्धियोंमें फँस जायगा तो भोग होगा, योग नहीं होगा ।

तात्पर्य यह है कि किसी भी मार्गसे चलनेवाले साधकको व्यवहार-अवस्थामें अथवा साधन-अवस्थामें हरदम सावधान रहना चाहिये । उसको किसी भी अवस्थामें वस्तु, व्यक्ति, क्रिया, पदार्थ, योग्यता, स्थिरता आदिका सुख नहीं लेना चाहिये; क्योंकि सुख लेनेसे भोग हो जायगा, योग नहीं होगा (१४ । ६) ।

सात्त्विक सुख सङ्गसे, राजस सुख कर्मोंकी आसक्तिसे और तामस सुख, निद्रा, आलस्य एवं प्रमादसे बाँधता है (१४ । ६-८) । अतः साधक सावधानीपूर्वक सात्त्विक, राजस और तामस सुखसे बँधे नहीं, उसका सङ्ग न करे, तो फिर उसका परमात्माके साथ योग हो जायगा ।

नारायण ! नारायण ! नारायण !