Listen गुणसङ्गो हि जीवानां बन्धनं कथ्यते महत् । गुणसङ्गपरित्यागो जीवानां मोक्ष
उच्यते ॥ रसोईके स्वच्छ बर्तनको चूल्हेपर चढ़ाते हैं,
तो उसपर बाहरसे धुआँ और भीतरसे अन्न चिपक जाता है और इस तरह
उस बर्तनके साथ विजातीय द्रव्य (धुआँ और अन्न)-का सम्बन्ध हो जाता है । स्वच्छ कपड़ेको मैल लग जाता है,
दर्पणपर मैल आ जाता है, मकानमें कूड़ा-कचरा आ जाता है तो कपड़े,
दर्पण और मकानके साथ विजातीय द्रव्यका सम्बन्ध हो जाता है ।
परन्तु बर्तनको मिट्टी और जलसे साफ कर दिया जाय तो वह स्वच्छ (निर्मल) हो जाता है अर्थात्
उसपर चिपका हुआ धुआँ और अन्न निकल जानेसे वह अपने स्वरूपमें आ जाता है । कपड़ेको साबुन
और जलसे धोनेपर उसका मैल निकल जाता है और वह स्वच्छ हो जाता है,
अपने स्वरूपमें आ जाता है । दर्पणको कपड़ेसे पोंछ दिया जाय तो
उसका मैल उतर जानेसे वह स्वच्छ हो जाता है । मकानमें झाड़ू लगानेसे कूड़ा-करकट दूर हो
जाता है तो वह स्वच्छ हो जाता है । इसी तरह यह जीवात्मा (स्वयं) प्रकृति और उसके कार्य
शरीर आदिके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, उनके परवश हो जाता है तो इसमें अशुद्धि आ जाती है;
यही बन्धन है । परन्तु जब यह प्रकृति और उसके कार्यके साथ माने
हुए सम्बन्धको छोड़ देता है,
तब यह स्वच्छ (निर्मल) हो जाता है,
इसको अपने स्वरूपका बोध हो जाता है;
यही मोक्ष है । जैसे, बर्तनपर धुआँ और अन्न न लगे तो बर्तन साफ ही है,
कपड़ेको मैल न लगे तो कपड़ा साफ है,
दर्पणपर मैल न होनेसे दर्पण साफ ही है,
मकानमें कूड़ा-करकट न हो तो मकान साफ ही है । ऐसे ही यह जीवात्मा
प्रकृतिके कार्य स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीरको न पकड़े,
उनके साथ अपनापन न करे, उनको अपना न माने तो यह मुक्त ही है । इन बर्तन,
कपड़ा, दर्पण आदिसे इस जीवात्माकी यह विलक्षणता है कि ये बर्तन आदि
मैलको स्वयं नहीं पकड़ते; किन्तु इनपर मैल आ जाता है, चिपक जाता है । परन्तु यह जीवात्मा
प्रकृतिके कार्य शरीर-इन्द्रियाँ आदिके साथ सम्बन्ध जोड़ता है, उनको
अपना मानता है, जिससे यह बँध जाता है । सत्-असत्, शुभ-अशुभ योनियोंमें जन्म होनेका कारण गुणोंका संग ही है (१३ । २१) । सम्पूर्ण
प्राणी क्षेत्र-क्षेत्रज्ञके संयोगसे ही पैदा होते हैं (१३ । २६) पर यह संयोग (सम्बन्ध) क्षेत्र नहीं करता, क्षेत्रज्ञ
ही करता है । क्षेत्रके साथ सम्बनध जोड़ना ही बन्धन है और सम्बन्ध न जोड़ना ही मोक्ष
है ।
भगवान्ने कहा है कि पृथ्वी, जल, तेज आदि आठ भेदोंवाली मेरी ‘अपरा प्रकृति’ है और इससे भिन्न जीव बनी हुई मेरी ‘परा प्रकृति’
है । इस परा प्रकृति (जीवात्मा)-ने ही अहंता-ममता,
कामना-आसक्ति आदि करके इस जगत्को धारण कर रखा है (७ । ४-५)
। इस जीवलोकमें जीव बना हुआ यह आत्मा मेरा ही सनातन अंश है,
पर यह भूलसे प्रकृतिमें स्थित मन-इन्द्रियोंको खींचता है,
उनको अपनी मानता है (१५ । ७) । तात्पर्य है कि यह जीवात्मा स्वरूपसे
स्वतः असङ्ग है,
पर यह प्रकृतिके कार्य गुण, इन्द्रियाँ, शरीर आदिको स्वीकार कर लेता है, उनके साथ अपनापन कर लेता है;
अतः यह बन्धनमें आ जाता है । यह स्त्री, पुत्र,
धन आदिको जितना-जितना अपना मान लेता है,
उतना-उतना यह बन्धनमें आ जाता है,
परवश हो जाता है । परन्तु यह उनके साथ माने हुए सम्बन्धका जितना-जितना
त्याग कर देता है, उतना-उतना यह उनसे मुक्त हो जाता है । |