।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
      आश्विन कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७९, गुरुवार

गीतामें बन्ध और मोक्षका स्वरूप



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यह स्वयं (जीवात्मा) प्रकृतिके सम्बन्धके बिना कुछ भी सांसारिक काम नहीं कर सकता । जब कुछ कर ही नहीं सकता, तो फिर यह (प्रकृतिके सम्बन्धके बिना) बन्धनमें पड़ ही नहीं सकता । प्रकृतिके सम्बन्धके बिना कुछ भी नहीं कर सकनेके कारण इसपर करनेकी जिम्मेवारी भी नहीं रहती और इसमें कर्तृत्व भी नहीं रहता । अतः गीताने जगह-जगह इसको अकर्ता बताया है (१३ । २९, ३२-३३ आदि) ।

प्रकृतिके साथ माने हुए सम्बन्धके तोड़नेके तीन उपाय है‒

(१) कर्मयोग‒कर्मयोगके द्वारा बन्धनसे मुक्‍त होनेका तरीका यह है कि मनुष्य स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरसे जो कुछ करता है, उसने केवल लोकसंग्रहके लिये, कर्तव्य-परम्पराको सुरक्षित रखनेके लिये, मनुष्योंको उन्मार्गसे हटकर सन्मार्गपर लगानेके लिये, प्राणिमात्रका हित करनेके लिये ही करे, अपने लिये न करे (३ । ९, २०) । ऐसा करनेसे उसको अपनी असंगताका, अपने स्वरूपका बोध हो जायगा ।

(२) ज्ञानयोग‒ज्ञानयोगके द्वारा बन्धनसे छूटनेका तरीका यह है कि मनुष्य सत्-असत, नित्य-अनित्यके विवेकद्वारा असत् (शरीर आदि)-से अपने-आपको अलग अनुभव कर ले । ऐसा करनेसे वह मोक्ष पा लेता है, बन्धनसे रहित हो जाता है (१३ । २३, ३४) ।

(३) भक्तियोग‒भक्तियोगके द्वारा बन्धनसे मुक्‍त होनेका तरीका यह है कि मनुष्य अपनेसहित संसारमात्रको भगवान्‌का ही मानकर केवल भगवान्‌की प्रसन्‍नताके लिये ही सब कार्य करे, सब कुछ भगवान्‌के ही अर्पण करे । ऐसा करनेसे वह सांसारिक बन्धनसे मुक्‍त हो जाता है (९ । २६२८) ।

वास्तवमें बन्धन है ही नहीं ! अगर वास्तवमें बन्धन होता तो उसका कभी अभाव नहीं होता‒नाभावो विद्यते सतः’ (२ । १६) और जीव कभी बन्धनसे मुक्‍त नहीं होता । परन्तु वास्तवमें यह बन्धन स्वयंका किया हुआ है, माना हुआ है । अतः यह जब चाहे, तब बन्धनको छोड़ सकता है । बन्धनको छोड़नेमें यह स्वतन्त्र है, सबल है, समर्थ है, योग्य है, अधिकारी है । अतः गीता कहती है कि पापी-से-पापी मनुष्य भी ज्ञान प्राप्त कर सकता है (४ । ३६) और दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी अनन्यभावसे भगवान्‌का भजन कर सकता है (९ । ३०) । अतः किसी देशका, किसी वेशका, किसी वर्णका, किसी सम्प्रदायका कैसा ही व्यक्ति (स्त्री या पुरुष) क्यों न हो, वह संसारके बन्धनसे रहित हो सकता है, मोक्ष प्राप्त कर सकता है ।

सभी साधक अपने-अपने सम्प्रदायके अनुसार द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, अचिन्त्यभेदाभेद, द्वैताद्वैत आदि किसी एक धारणाको लेकर पारमार्थिक मार्गपर चलते हैं, और उस धारणाके अनुसार ही वे परमात्मतत्त्वका, अपने स्वरूपका अनुभव करते हैं । परन्तु उन सबका परिवर्तनशील संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर उनके लिये संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती; क्योंकि वास्तवमें संसारकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं ।