Listen यह स्वयं (जीवात्मा) प्रकृतिके सम्बन्धके बिना कुछ भी सांसारिक
काम नहीं कर सकता । जब कुछ कर ही नहीं सकता, तो फिर यह (प्रकृतिके सम्बन्धके बिना) बन्धनमें पड़ ही नहीं सकता
। प्रकृतिके सम्बन्धके बिना कुछ भी नहीं कर सकनेके कारण इसपर
करनेकी जिम्मेवारी भी नहीं रहती और इसमें कर्तृत्व भी नहीं रहता । अतः गीताने जगह-जगह
इसको अकर्ता बताया है (१३ । २९, ३२-३३ आदि) । प्रकृतिके साथ माने हुए सम्बन्धके तोड़नेके तीन उपाय है‒ (१) कर्मयोग‒कर्मयोगके द्वारा बन्धनसे मुक्त होनेका तरीका यह है कि मनुष्य स्थूल,
सूक्ष्म और कारण-शरीरसे जो कुछ करता है,
उसने केवल लोकसंग्रहके लिये, कर्तव्य-परम्पराको सुरक्षित रखनेके लिये,
मनुष्योंको उन्मार्गसे हटकर सन्मार्गपर लगानेके लिये,
प्राणिमात्रका हित करनेके लिये ही करे,
अपने लिये न करे (३ । ९, २०) । ऐसा करनेसे उसको अपनी असंगताका,
अपने स्वरूपका बोध हो जायगा । (२) ज्ञानयोग‒ज्ञानयोगके द्वारा बन्धनसे छूटनेका तरीका यह है कि मनुष्य सत्-असत,
नित्य-अनित्यके विवेकद्वारा असत् (शरीर आदि)-से अपने-आपको अलग
अनुभव कर ले । ऐसा करनेसे वह मोक्ष पा लेता है, बन्धनसे रहित हो जाता है (१३ । २३, ३४) । (३) भक्तियोग‒भक्तियोगके द्वारा बन्धनसे मुक्त होनेका तरीका यह है कि मनुष्य अपनेसहित संसारमात्रको
भगवान्का ही मानकर केवल भगवान्की प्रसन्नताके लिये ही सब कार्य करे,
सब कुछ भगवान्के ही अर्पण करे । ऐसा करनेसे वह सांसारिक बन्धनसे
मुक्त हो जाता है (९ । २६‒२८) । वास्तवमें बन्धन है ही नहीं ! अगर वास्तवमें बन्धन होता तो उसका
कभी अभाव नहीं होता‒‘नाभावो विद्यते सतः’
(२ । १६) और जीव कभी बन्धनसे
मुक्त नहीं होता । परन्तु वास्तवमें यह बन्धन स्वयंका किया
हुआ है, माना हुआ है । अतः यह जब चाहे, तब
बन्धनको छोड़ सकता है । बन्धनको छोड़नेमें यह स्वतन्त्र है, सबल
है, समर्थ
है, योग्य
है, अधिकारी
है । अतः गीता कहती है कि पापी-से-पापी मनुष्य भी ज्ञान प्राप्त कर सकता है (४ । ३६)
और दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी अनन्यभावसे भगवान्का भजन कर सकता है (९ । ३०) ।
अतः किसी देशका, किसी वेशका, किसी वर्णका, किसी सम्प्रदायका कैसा ही व्यक्ति (स्त्री या पुरुष)
क्यों न हो, वह संसारके बन्धनसे रहित हो सकता है, मोक्ष
प्राप्त कर सकता है ।
सभी साधक अपने-अपने सम्प्रदायके अनुसार द्वैत,
अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, अचिन्त्यभेदाभेद, द्वैताद्वैत आदि किसी एक धारणाको लेकर पारमार्थिक मार्गपर चलते
हैं,
और उस धारणाके अनुसार ही वे परमात्मतत्त्वका,
अपने स्वरूपका अनुभव करते हैं । परन्तु उन सबका परिवर्तनशील
संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर उनके लिये संसारकी स्वतन्त्र
सत्ता नहीं रहती; क्योंकि वास्तवमें संसारकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं । |