।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
     आश्विन कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

गीतामें बन्ध और मोक्षका स्वरूप



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भगवान्‌ने अपरा जड़ और परा (चेतन)‒दोनोंको अपनी प्रकृति बताया है । अपरा प्रकृतिमें निरन्तर परिवर्तन होता है, वह कभी एकरूप नहीं रहती और परा प्रकृति परिवर्तनरहित है । परा प्रकृति परमात्मासे अभिन्‍न हैं; अतः वह चाहे भिन्‍न होकर लीला करे, चाहे अभिन्‍न रहे, परमात्माके सिवाय उसकी कोई अलग (स्वतन्त्र) सत्ता नहीं होती । लीलाके कारण उसमें द्वैतपना दीखता है, पर वास्तवमें अद्वैत ही रहता है । उसका परमात्मासे नित्ययोग रहता है । तात्पर्य है कि प्रेम-रसकी अनुभूतिके लिये परा प्रकृति परमात्मासे अलग होकर लीला करती है, पर वास्तवमें वह अलग नहीं होती । इस विषयमें आचार्योंमें मतभेद है । कई आचार्य अद्वैत मानते हैं, कई द्वैत मानते हैं, कई द्वैताद्वैत मानते हैं, कई विशिष्टाद्वैत मानते हैं, आदि-आदि । उन आचार्योंके मतके, मान्यताके, सम्प्रदायके अनुसार साधकोंकी साधना चलती है अर्थात् कई साधक द्वैत मानकर चलते हैं और कई साधक अद्वैत आदि मानकर चलते हैं, पर वास्तविक अनुभव होनेपर पहले जैसी मान्यता थी, वैसी नहीं रहती । साधकको उस मान्यतासे विलक्षण तत्त्व मिलता है । जैसे, किसीने बद्रीनारायण जानेका विचार किया तो वह बद्रीनारायणके विषयमें (सुने हुएके अनुसार) कई कल्पनाएँ करने लगता है कि वहाँ ऐसा मन्दिर होगा, मन्दिरके पासमें अलकनन्दा बहती होगी, बर्फके पहाड़ होंगे आदि-आदि । पर जब वह वहाँ जाकर देखता है तो उसको वैसा नहीं मिलता, जैसा कल्पनामें था, प्रत्युत उससे विलक्षण ही मिलता है । हम किसी महात्माके विषयमें सुनते हैं, उनकी महिमा, उनके गुण सुनते हैं तो उनका ऐसा शरीर है, उनके ऐसे सफेद बाल हैं आदि कितनी ही बातें सुननेपर और वैसी धारणा कर लेनेपर भी जब प्रत्यक्ष उनसे मिलते हैं, तब वे महात्मा उस धारणासे विलक्षण मिलते हैं । ऐसे ही साधक पहले अपने सम्प्रदायके अनुसार, अपनी धारणाके अनुसार साधन करता है, पर वास्तविकताका अनुभव उस धारणासे विलक्षण होता है । अगर हम वास्तविकताके अनुभवको अपनी पूर्वधारणासे विलक्षण न स्वीकार करें, जैसा साधक-अवस्थामें मानते थे वैसा ही स्वीकार करें तो साधक और सिद्धका भेद नहीं हो सकता । साधक और सिद्धके भेदसे ही यह सिद्ध होता है कि साधककी धारणाके अनुसार तत्त्व नहीं है । वह तत्त्व वर्णनातीत है; उसका वर्णन नहीं होता, प्रत्युत अनुभव होता है । अतः उस तत्त्वका वर्णन, विवेचन करते समय जैसी मान्यता रहती है, वैसी मान्यता अनुभव होनेपर नहीं रहती । जैसे, कोई साधक विवेक (प्रकृति-पुरुषके भेद)-की प्रधानता रखकर साधन करता है । जब उसको वास्तविक तत्त्वका अनुभव हो जाता है, तब उसके लिये प्रकृतिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती और विवेक वास्तविक तत्त्वमें परिणत हो जाता है । फिर उसका नामविवेक’ नहीं होता, प्रत्युत बोध होता है । वह बोध ही वास्तविक अनुभव है । तात्पर्य है कि साधनावस्थामें साधककी जो धारणा रहती है, वह वास्तविक तत्त्वका अनुभव होनेपर नहीं रहती । कारण कि साधकके पास विचार करनेकी जो सामग्री‒इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अन्तःकरण आदि हैं, वे सब अपरा प्रकृतिके अंश हैं । अतः ये सब मिलकर भी प्रकृतिसे अतीत तत्त्वको पहचान नहीं सकते ।