।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
     आश्विन कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७९, शनिवार

गीतामें बन्ध और मोक्षका स्वरूप



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जो साधक दास्य, सख्य, वात्सल्य आदि भावकी प्रधानता रखकर साधन करता है, उसको जब अनुभव हो जाता है, तब वैसा भाव (अलगपना) नहीं रहता । उसका भगवान्‌से नित्ययोग हो जाता है । जैसे, रामलला वनवासमें पधारे तो माता कौसल्या सुमित्रासे पूछती है किबहन ! तुम सच्‍ची बात बताओ, रामलला वनमें चले गये या यहाँ ही हैं ? अगर वे वनमें चले गये तो वे मेरी आँखोंके सामने कैसे दीखते हैं; और अगर वे वनमें नहीं गये तो फिर मेरे हदयमें व्याकुलता क्यों है ? इस अवस्थामें माता कौसल्याका रामजीसे नित्ययोग है । यह नित्ययोग कभी स्मृतिरूपसे होता है और कभी स्वरूपसे । वियोग हो जायगा’ऐसा भाव रहता है तो यहयोगमें वियोग’ हुआ; और वियोगमें प्रेमास्पद सदा सामने दीखते रहते हैं‒यहवियोगमें योग’ हुआ । इस तरह योगमें वियोग और वियोगमें योग पुष्ट होते रहते हैं । योग और वियोगके रससे प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता रहता है । इसमें कई आचार्योंने योगको और कई आचार्योंने वियोगको मुख्यता दी है ।

जो अद्वैतमतको माननेवाले हैं, उनको जो आनन्द प्राप्त होता है, वह अखण्ड (शान्त) होता है । परन्तु जो द्वैतमतको, प्रेमको माननेवाले हैं, उनको जो आनन्द प्राप्त होता है, वह अनन्त (प्रतिक्षण वर्धमान) होता है । उस प्रेमके आनन्दमें ही योगमें वियोग और वियोगमें योग‒यह प्रवाह चलता रहता है, जिसका कभी अन्त नहीं आता ।

प्रश्न‒पाँच प्रकारकी मुक्ति क्या है ?

उत्तर‒सालोक्य, सार्ष्टि, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य (एकत्व)‒ये पाँच प्रकारकी मुक्तियाँ हैं । भगवद्धाममें जाकर निवास करना सालोक्य’ है । भगवद्धाममें एक विशेष आनन्द है । वहाँ सुख-दुःखवाला सुख नहीं है, प्रत्युत सुख-दुःखसे अतीत आनन्द है । सालोक्यसे आगेकी मुक्ति है‒सार्ष्टि’ । इस मुक्तिमें भक्तको भगवद्धाममें भगवान्‌के समान ऐश्वर्य प्राप्त हो जाता है अर्थात् जैसा भगवान्‌का ऐश्वर्य है, वैसा ही ऐश्वर्य भक्तको प्राप्त हो जाता है । संसारकी उत्पत्ति करना, संहार करना आदि ऐश्वर्यको छोड़कर सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यज्ञ, श्री, ज्ञान और वैराग्य‒ये सभी भगवान्‌के समान भक्तको भी प्राप्त हो जाते हैं । सार्ष्टिसे आगेकी मुक्ति है‒सामीप्य’ । इस मुक्तिमें भक्त भगवद्धाममें रहते हुए भी भगवान्‌के समीप रहता है और भगवान्‌के माँ-बाप, सखा, पुत्र, स्त्री आदि सम्बन्धी होकर रहता है । सामीप्यसे भी आगेवाली मुक्ति है‒सारूप्य’ । इस मुक्तिमें भक्तका रूप भगवान्‌के समान हो जाता है । भगवान्‌के वक्षःस्थलमें स्थित श्रीवत्स (लक्ष्मीका निवास), भृगुलता (भृगुजीका चरणचिह्न) और कौस्तुभमणि‒इन तीन चिह्नोंको छोड़कर शेष शंख, चक्र, गदा, पद्म आदि सभी चिह्न भक्तके भी हो जाते हैं । सारूप्यसे भी आगेकी मुक्ति है‒सायुज्य’ अर्थात् एकत्व । इस मुक्तिमें भक्त भगवान्‌से अभिन्‍न हो जाता है अर्थात् वह अपना स्वतन्त्र अस्तित्व ही नहीं मानता ।

उपर्युक्त पाँचों मुक्तियाँ सगुण-साकारको माननेवालोंकी होती हैं । इन पाँचों मुक्तियोंमेंसे सायुज्य’ (एकत्व) मुक्तिको निर्गुण-निराकारको माननेवाले, अद्वैत-सिद्धान्तमें चलनेवाले भी मान सकते हैं ।

प्रेमी भक्त भगवान्‌की सेवाको छोड़कर इन पाँच प्रकारकी मुक्तियोंको भगवान्‌के द्वारा दिये जानेपर भी स्वीकार नहीं करता‒

सालोक्यसार्ष्टिसामीप्यसारूप्यैकत्वमप्युत ।

दीयमानं न गृह्‌णन्ति विना मत्सेवनं जनाः ॥

(श्रीमद्भा ३ । २९। १३)

कारण कि वह केवल भगवान्‌को सुख देना चाहता है । संसारमें जन्म-मरण होता रहे, संसार-बन्धनसे मुक्ति न हो‒इसकी वह परवाह नहीं करता । बन्धनमें अपना दुःख और मुक्तिमें अपना सुख होता है, पर भगवान्‌की सेवामें अपने सुख-दुःखकी परवाह नहीं होती, प्रत्युत केवल भगवान्‌की प्रसन्‍नताकी तरफ दृष्टि रहती है ।

बद्ध अवस्थाने हम ब्रह्म, जीव आदिको विलक्षण रीतिसे देखते हैं और प्रकृतिको भी कार्य-कारणरूपसे विलक्षण रीतिसे देखते हैं । परन्तु साधन करते-करते साधकको ब्रह्म, जीव आदिका विलक्षण ही अनुभव होता है । सिद्ध-अवस्थामें तो उससे भी विलक्षण अनुभव होता है । अद्वैत-सिद्धान्तसे जो मोक्ष होता है, उसमें जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेदकी मुख्यता रहती है और भक्तिसे जो मोक्ष होता है उसमें चिन्मय-तत्त्वके साथ एकताकी मुख्यता रहती है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण !