।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
     आश्विन कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७९, रविवार

गीतामें समता



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सिद्धसाधकयोः प्रोक्ता  गीतायां समता द्विधा ।

मानसी साधकानां च सिद्धानां सहजा स्मृता ॥

गीतामें अगर कोई प्रभावशाली लक्षण है तो वह है‒समता । वह समता किसी भी साधनसे आ जाय तो बेड़ा पार है ! साधकमें एक समताके आनेपर गीता दूसरे लक्षणोंको देखती ही नहीं; क्योंकि समता साक्षात् परमात्माका स्वरूप है‒निर्दोषं हि समं ब्रह्म’ (५ । १९); ‘समोऽह सर्वभूतेषु’ (९ । २९) और समतामें ही साधनकी पूर्णता है । अतः समता आनेपर दूसरे लक्षण अपने-आप आ जाते हैं । अगर किसी मनुष्यमें समता नहीं है, पर दूसरे बहुतसे लक्षण है, तो वह अधूरा है, उसमें पूर्णता नहीं है । समताके बिना दूसरे सब लक्षण‒विद्या, योग्यता, आदर, नीरोगता, धन-सम्पत्ति आदि कुछ नहीं है । वह सब विषमता है । यह समता मनुष्यमात्रको स्वतः प्राप्त है । विषमता तो मनुष्योंकी अपनी बनायी हुई है । अतः विषमता कृत्रिम है, प्राकृत है, टिकनेवाली नहीं है; क्योंकि यह असत् (शरीर आदि)-के संगसे पैदा होती है ।

प्रत्येक क्रियाका आरम्भ होता है और समाप्‍ति होती है । कर्मफलका भी संयोग होता है और वियोग होता है, पर स्वयं ज्यों-का-त्यों रहता है । यह सबके अनुभवकी बात है । संयोग-वियोग तो व्यक्ति, क्रिया और पदार्थोंका हुआ, पर स्वयंका कोई संयोग-वियोग नहीं हुआ, वह ज्यों-का-त्यों ही रहा । संयोगमात्रका वियोग होना अवश्यम्भावी है अर्थात् जिसका संयोग हुआ है, उसका वियोग होगा ही । परन्तु जिसका वियोग हुआ है, उसका संयोग होगा‒यह नियम नहीं है । अतः संयोग अनित्य है और वियोग नित्य है । अगर इस वियोगपर मनुष्यकी हरदम दृष्टि रहे तो मनुष्यमें कभी विषमता आ ही नहीं सकती । कारण कि विषमता तो उसमें आयी हुई है और समता उसमें स्वतःसिद्ध है । इसी समताक नाम ‘योग’ है (२ । ४८) ।

परमात्मा सम हैं । उनमें विषमताके लिये कोई अवकाश नहीं है । परन्तु प्रकृति विषम है । अतः परमात्माकी ओर जो दृष्टि होती है, वह समदृष्टि होती है । तात्पर्य है कि सब जगह समरूप परमात्माको देखना समदृष्टि है और प्रकृति तथा उसके कार्य (शरीर-संसार)-को देखना विषम दृष्टि है । प्रकृति और उसके कार्यमें समदृष्टि कभी हो ही नहीं सकती । अतः प्रकृतिकी ओर दृष्टि रखनेवाले कभी समदर्शी नहीं हो सकते और परमात्माकी तरफ दृष्टि रखनेवाले कभी विषमदर्शी नहीं हो सकते । इसलिये गीताने परमात्माकी तरफ दृष्टि रखनेवालोंको समदर्शिनः’ (५ । १८) सर्वत्र समबुद्धयः’ (१२ । ४) आदि पदोंसे कहा है ।