Listen सिद्धसाधकयोः
प्रोक्ता गीतायां समता द्विधा । मानसी साधकानां च सिद्धानां सहजा स्मृता ॥ गीतामें अगर कोई प्रभावशाली लक्षण है तो वह है‒समता
। वह समता किसी भी साधनसे आ जाय तो बेड़ा पार है ! साधकमें एक समताके आनेपर गीता दूसरे लक्षणोंको देखती ही नहीं;
क्योंकि समता साक्षात् परमात्माका
स्वरूप है‒‘निर्दोषं हि समं ब्रह्म’ (५ ।
१९); ‘समोऽह
सर्वभूतेषु’ (९ ।
२९) और समतामें ही साधनकी पूर्णता
है । अतः समता आनेपर दूसरे लक्षण अपने-आप आ जाते हैं । अगर
किसी मनुष्यमें समता नहीं है, पर दूसरे बहुतसे लक्षण है, तो
वह अधूरा है, उसमें पूर्णता नहीं है । समताके बिना दूसरे सब लक्षण‒विद्या, योग्यता, आदर, नीरोगता, धन-सम्पत्ति
आदि कुछ नहीं है । वह सब विषमता है । यह समता मनुष्यमात्रको स्वतः प्राप्त है । विषमता
तो मनुष्योंकी अपनी बनायी हुई है । अतः विषमता कृत्रिम है, प्राकृत
है, टिकनेवाली
नहीं है; क्योंकि
यह असत् (शरीर आदि)-के संगसे पैदा होती है । प्रत्येक क्रियाका आरम्भ होता है और समाप्ति होती है । कर्मफलका
भी संयोग होता है और वियोग होता है, पर स्वयं ज्यों-का-त्यों रहता है । यह सबके अनुभवकी बात है ।
संयोग-वियोग तो व्यक्ति, क्रिया और पदार्थोंका हुआ, पर स्वयंका कोई संयोग-वियोग नहीं हुआ,
वह ज्यों-का-त्यों ही रहा । संयोगमात्रका वियोग होना अवश्यम्भावी
है अर्थात् जिसका संयोग हुआ है, उसका वियोग होगा ही । परन्तु
जिसका वियोग हुआ है, उसका संयोग होगा‒यह नियम नहीं है । अतः संयोग अनित्य है और वियोग
नित्य है । अगर इस वियोगपर मनुष्यकी हरदम दृष्टि रहे तो मनुष्यमें कभी विषमता आ ही
नहीं सकती । कारण कि विषमता तो उसमें आयी हुई है और समता उसमें स्वतःसिद्ध है
। इसी समताक नाम ‘योग’ है (२ । ४८) ।
परमात्मा सम हैं । उनमें विषमताके लिये कोई अवकाश नहीं है ।
परन्तु प्रकृति विषम है । अतः परमात्माकी ओर जो दृष्टि होती है,
वह समदृष्टि होती है । तात्पर्य है कि सब जगह समरूप परमात्माको
देखना समदृष्टि है और प्रकृति तथा उसके कार्य (शरीर-संसार)-को देखना विषम दृष्टि है
। प्रकृति और उसके कार्यमें समदृष्टि कभी हो ही नहीं सकती । अतः प्रकृतिकी ओर दृष्टि
रखनेवाले कभी समदर्शी नहीं हो सकते और परमात्माकी तरफ दृष्टि रखनेवाले कभी विषमदर्शी
नहीं हो सकते । इसलिये गीताने परमात्माकी तरफ दृष्टि रखनेवालोंको
‘समदर्शिनः’ (५ । १८)
‘सर्वत्र
समबुद्धयः’ (१२ । ४) आदि पदोंसे कहा है । |