।। श्रीहरिः ।।



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     आश्विन कृष्ण नवमी, वि.सं.-२०७९, सोमवार

गीतामें समता



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परमात्माके साथ स्वयंका नित्ययोग है और मन, बुद्धि आदिके साथ स्वयंका नित्य वियोग है (६ । २३) । परमात्माके साथ नित्ययोग होते हुए भी जबतक स्वयं संसारके साथ संयोग मानता रहता है, तबतक उसको उस नित्ययोगकी अनुभूति नहीं होती । परन्तु जब नित्ययोगकी अनुभूति हो जाती है अर्थात् परमात्माके साथ योग हो जाता है, तब वह योग अर्थात् समता उसके मन, बुद्धि अन्तःकरणमें भी आ जाती है (५ । १९) । फिर वह सुख-दुःख आदिमें सम हो जाता है (१४ । २४-२५) । फिर उसकी समता पुण्यात्मा-पापात्मा आदि व्यक्तियोंमें भी हो जाती है (६ । ९) । फिर वही समता व्यवहारमें भी आ जाती है अर्थात् व्यवहारमें उसके राग-द्वेष नहीं होते (५ । १८) । फिर उसकी समता पदार्थोंमें भी हो जाती है अर्थात् पदार्थोंमें उसकी प्रियता-अप्रियता नहीं होती (६ । ८) । तात्पर्य है कि परमात्मतत्त्वको लेकर उसकी सब जगह समता हो जाती है अर्थात् वर्ण, आश्रम परिस्थिति, साधन आदिको लेकर उसका व्यवहार (बर्ताव) तो यथायोग्य ही होता है, पर हदयमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि नहीं होते ।[*]

समता दो तरहकी खेती है‒साधनरूपा और साध्यरूपा । साधनरूपा समता अन्तःकरणकी होती है और साध्यरूपा समता परमात्मतत्त्वकी होती है । इसे क्रमशः साधककी समता और सिद्धकी समता भी कह सकते हैं ।

(१) साधककी समता‒कर्मयोगी साधक सिद्धि-असिद्धिमें सम रहकर कर्म करता है (२ । ४८) । ज्ञानयोगी साधकमें सत्-असत्‌का विवेक मुख्य रहता है । सत्‌का कभी वियोग होता नहीं और असत् कभी नित्य रहता नहीं, अतः ज्ञानयोगीमें सत्-स्वरूपसे सदा ही समता रहती है (२ । १५) । भक्तियोगी साधक भगवन्‍निष्ठ होता है । वह भगवान्‌की मरजीमें सदा ही प्रसन्‍न रहता है । अतः उसका सांसारिक पदार्थ, वस्तु, परिस्थिति आदिके संयोग-वियोगसे, आने-जानेसे कोई मतलब नहीं रहता । उसका केवल भगवान्‌से ही मतलब रहता है । ऐसे भक्तोंको भगवान्‌ स्वयं समता देते हैं (१० । १०) ।

अगर कर्मयोगीमें समता नहीं आ रही है तो सिद्धि-असिद्धिमें उसकी महत्त्वबुद्धि है । अगर ज्ञानयोगीमें समता नहीं आ रही है तो असत् पदार्थोंमें उसकी महत्त्वबुद्धि है । अगर भक्तियोगीमें समता नहीं आ रही है तो भगवान्‌की कृपाकी तरफ उसकी दृष्टि नहीं है । निष्कर्ष यह निकला कि विनाशी पदार्थोंका महत्त्व अन्तःकरणमें होनेसे ही स्वतःसिद्ध समताका अनुभव नहीं होता । उस महत्त्वके हटते ही समता आ जाती है ।

तात्पर्य है कि समताके साथ मनुष्यका नित्ययोग है । केवल असत्‌को महत्त्व देनेसे ही उसमें विषमता आती है । अतः मनुष्य असत्‌को महत्व न दे ।

(२) सिद्धकी समता‒सिद्ध कर्मयोगी (६ । ८-९), सिद्ध ज्ञानयोगी (१४ । २४) और सिद्ध भक्तियोगी (१२ । १८-१९)‒तीनोंमें समता स्वतः रहती है ।

तात्पर्य है कि किसी भी मार्गके साधकपर जबतक अनुकूलता-प्रतिकूलता, सुख-दुःख आदिका किञ्चिन्मात्र भी असर पड़ता है और वह उनसे विचलित होता है, तबतक साधकमें साधनरूपा समता रहती है । जब साधकको अनुकूलता-प्रतिकूलता आदिका ज्ञान तो होता है, पर उसका उसपर किञ्चिन्मात्र भी असर नहीं पड़ता तब साधकमें साध्यरूपा समता अटलरूपसे रहती है । उस साध्यरूपा समताके प्राप्त होनेपर अन्तःकरणमें स्वतः समता आ जाती है और अन्तःकरणकी समतासे यह मालूम होता है कि साध्यरूपा समता प्राप्त हो गयी है ( ५ । १९) ।

नारायण ! नारायण ! नारायण !



[*] इसे विस्तारसे समझनेके लिये गीताकी ‘साधक-संजीवनी’ नामक हिंदी टीकामें पाँचवें अध्यायके अठारहवें श्‍लोककी व्याख्या देखनी चाहिये ।