Listen परमात्माके साथ स्वयंका नित्ययोग है और मन,
बुद्धि आदिके साथ स्वयंका नित्य वियोग है (६ । २३) । परमात्माके
साथ नित्ययोग होते हुए भी जबतक स्वयं संसारके साथ संयोग मानता रहता है,
तबतक उसको उस नित्ययोगकी अनुभूति नहीं होती । परन्तु जब नित्ययोगकी
अनुभूति हो जाती है अर्थात् परमात्माके साथ योग हो जाता है,
तब वह योग अर्थात् समता उसके मन,
बुद्धि अन्तःकरणमें भी आ जाती है (५ । १९) । फिर वह सुख-दुःख
आदिमें सम हो जाता है (१४ । २४-२५) । फिर उसकी समता पुण्यात्मा-पापात्मा आदि व्यक्तियोंमें
भी हो जाती है (६ । ९) । फिर वही समता व्यवहारमें भी आ जाती है अर्थात् व्यवहारमें
उसके राग-द्वेष नहीं होते (५ । १८) । फिर उसकी समता पदार्थोंमें भी हो जाती है अर्थात्
पदार्थोंमें उसकी प्रियता-अप्रियता नहीं होती (६ । ८) । तात्पर्य है कि परमात्मतत्त्वको
लेकर उसकी सब जगह समता हो जाती है अर्थात् वर्ण, आश्रम परिस्थिति, साधन
आदिको लेकर उसका व्यवहार (बर्ताव) तो यथायोग्य ही होता है, पर
हदयमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि नहीं होते ।[*] समता दो तरहकी खेती है‒साधनरूपा और साध्यरूपा । साधनरूपा समता
अन्तःकरणकी होती है और साध्यरूपा समता परमात्मतत्त्वकी होती है । इसे क्रमशः साधककी
समता और सिद्धकी समता भी कह सकते हैं । (१) साधककी समता‒कर्मयोगी साधक सिद्धि-असिद्धिमें सम रहकर कर्म करता है (२ ।
४८) । ज्ञानयोगी साधकमें सत्-असत्का विवेक मुख्य रहता है । सत्का कभी वियोग होता
नहीं और असत् कभी नित्य रहता नहीं, अतः ज्ञानयोगीमें सत्-स्वरूपसे सदा ही समता रहती है (२ । १५)
। भक्तियोगी साधक भगवन्निष्ठ होता है । वह भगवान्की मरजीमें सदा ही प्रसन्न रहता
है । अतः उसका सांसारिक पदार्थ, वस्तु, परिस्थिति आदिके संयोग-वियोगसे,
आने-जानेसे कोई मतलब नहीं रहता । उसका केवल भगवान्से ही मतलब
रहता है । ऐसे भक्तोंको भगवान् स्वयं समता देते हैं (१० । १०) । अगर कर्मयोगीमें समता नहीं आ रही है तो सिद्धि-असिद्धिमें उसकी
महत्त्वबुद्धि है । अगर ज्ञानयोगीमें समता नहीं आ रही है तो असत् पदार्थोंमें उसकी
महत्त्वबुद्धि है । अगर भक्तियोगीमें समता नहीं आ रही है तो भगवान्की कृपाकी तरफ उसकी
दृष्टि नहीं है । निष्कर्ष यह निकला कि विनाशी पदार्थोंका महत्त्व अन्तःकरणमें होनेसे
ही स्वतःसिद्ध समताका अनुभव नहीं होता । उस महत्त्वके हटते ही समता आ जाती है । तात्पर्य है कि समताके साथ मनुष्यका
नित्ययोग है । केवल असत्को महत्त्व देनेसे ही उसमें विषमता आती है । अतः मनुष्य असत्को
महत्व न दे । (२) सिद्धकी समता‒सिद्ध कर्मयोगी (६ । ८-९), सिद्ध ज्ञानयोगी (१४ । २४) और सिद्ध
भक्तियोगी (१२ । १८-१९)‒तीनोंमें समता स्वतः रहती है । तात्पर्य है कि किसी भी मार्गके साधकपर
जबतक अनुकूलता-प्रतिकूलता, सुख-दुःख आदिका किञ्चिन्मात्र भी असर पड़ता है और
वह उनसे विचलित होता है, तबतक साधकमें साधनरूपा समता रहती है । जब साधकको
अनुकूलता-प्रतिकूलता आदिका ज्ञान तो होता है, पर उसका उसपर किञ्चिन्मात्र भी असर नहीं पड़ता तब
साधकमें साध्यरूपा समता अटलरूपसे रहती है । उस साध्यरूपा समताके प्राप्त होनेपर अन्तःकरणमें
स्वतः समता आ जाती है और अन्तःकरणकी समतासे यह मालूम होता है कि साध्यरूपा समता प्राप्त
हो गयी है ( ५ । १९) । नारायण
! नारायण ! नारायण !
[*] इसे विस्तारसे समझनेके लिये गीताकी ‘साधक-संजीवनी’
नामक हिंदी टीकामें पाँचवें अध्यायके अठारहवें श्लोककी व्याख्या
देखनी चाहिये । |