।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   आश्विन कृष्ण दशमी, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

गीतामें क्रिया, कर्म और भाव



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कर्तृत्वभावेन सकामभावात्सर्वाः क्रिया बन्धनकारिकाश्च ।

कर्तृत्वहिना अपि कामहीनाः सर्वाः क्रिया निष्फलतां प्रयान्ति ॥

जड़ (प्रकृति)-में केवल परिवर्तनरूप क्रिया है, कर्म नहीं और चेतन अक्रिय है अर्थात् उसमें न क्रिया है और न कर्म है । परन्तु जब चेतन क्रियाशील प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर उसकी क्रियाको अपनेमें आरोपित कर लेता है अर्थात्मैं करता हूँ’‒ऐसा अहंकृतभाव कर लेता है (३ । २७), तब प्रकृतिकी क्रिया इसके लिये कर्म बन जाती है, जो कि शुभ-अशुभ फल देनेवाली होती है । क्रिया कभी भी बाँधनेवाली नहीं होती, प्रत्युत अहंकृतभावपूर्वक किया हुआ कर्म ही बाँधनेवाला होता है । अतः गीतामें कहा गया है कि जिसमें अहंकृतभाव और फलेच्छा नहीं है, वह अगर सम्पूर्ण प्राणियोंको मार दे तो भी वह न मारता है और न बँधता ही है (१८ । १७); क्योंकि उसके द्वारा केवल क्रिया होती है । जैसे, गंगाजीके द्वारा बहुतोंका पालन-पोषण होता है; ब्राह्मण, गायें आदि सब उसका जल पीते हैं, पर इससे गंगाजीको कोई पुण्य नहीं होता; और गंगाजीके प्रवाहमें बहुत-से जीव बह जाते हैं, मर जाते हैं, पर इससे गंगाजीको कोई पाप नहीं लगता । कारण कि गंगाजीमेंमैं सबका पालन-पोषण करती हूँ’ आदि अहंकृतभाव नहीं होता; अतः उसके द्वारा क्रियामात्र होती है, कर्म नहीं होता । सूर्यके प्रकाशमें वेदोंका पाठ होता है, यज्ञ आदि अनुष्ठान होते हैं तो सूर्य पुण्यका भागी नहीं होता; और सूर्यके प्रकाशमें कोई शिकारी पशुओंको मारता है तो सूर्य पापका भागी नहीं होता । कारण कि सूर्यमें मैं प्रकाश करता हूँ, ऐसा अहंकृतभाव न होनेसे उसके द्वारा केवल क्रिया होती है, कर्म नहीं होता । ऐसे ही संसारमें कई चोरियाँ होती हैं, डकैतियाँ होती हैं, हत्याएँ होती हैं, पर उनमें हमारा अनुमोदन न होनेसे, उनके साथ हमारा सम्बन्ध न होनेसे उनके द्वारा किये गये कर्म हमारे लिये क्रियामात्र होते हैं अर्थात् हमें बाँधनेवाले नहीं होते । इसी प्रकार हमारे शरीर, इन्द्रिय, मन आदिके द्वारा जो क्रियाएँ होती हैं, उनमें अगर हमारा कर्तृत्वभाव और फलासक्ति नहीं है तो वे क्रियाएँ कर्म नहीं बनतीं, फलजनक नहीं बनतीं, जन्म-मरण देनेवाली नहीं बनतीं । परन्तु उन्हीं क्रियाओंमें अगर हमारा कर्तृत्वभाव और फलासक्ति हो जाती है तो वे ही क्रियाएँ कर्म बन जाती हैं, बन्धनकारक बन जाती हैं (५ । १२) ।

मनुष्य बालकसे जवान होता है तो कोई पाप-पुण्य नहीं लगता, केवल क्रियामात्र होती है । शरीरमें प्राण, अपान आदिके द्वारा जो क्रियाएँ होती हैं, उनका कोई पाप-पुण्य नहीं लगता । इन्द्रियोंके द्वारा जो स्वतः-स्वाभाविक क्रियाएँ होती हैं, उनका भी हमें पाप-पुष्य नहीं लगता परन्तु जब हम उन क्रियाओंमें कर्तृत्वभाव कर लेते हैं, तब वे क्रियाएँ हमारे लिये कर्म बन जाती हैं । जैसे, श्वास लेना क्रिया है, पर कोई प्राणायाम करता है तो वह क्रिया उसके लिये कर्म बन जाती है, फलजनक हो जाती है (४ । ३०) ।