Listen कर्तृत्वभावेन सकामभावात्सर्वाः क्रिया बन्धनकारिकाश्च
। कर्तृत्वहिना अपि कामहीनाः सर्वाः क्रिया निष्फलतां
प्रयान्ति ॥ जड़ (प्रकृति)-में केवल परिवर्तनरूप क्रिया है,
कर्म नहीं और चेतन अक्रिय है अर्थात् उसमें न क्रिया है और न
कर्म है । परन्तु जब चेतन क्रियाशील प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर उसकी क्रियाको
अपनेमें आरोपित कर लेता है अर्थात् ‘मैं करता हूँ’‒ऐसा अहंकृतभाव कर लेता है (३ । २७), तब प्रकृतिकी
क्रिया इसके लिये कर्म बन जाती है, जो कि शुभ-अशुभ फल देनेवाली होती है । क्रिया कभी भी बाँधनेवाली नहीं होती, प्रत्युत
अहंकृतभावपूर्वक किया हुआ कर्म ही बाँधनेवाला होता है । अतः गीतामें कहा गया है कि जिसमें अहंकृतभाव और फलेच्छा नहीं
है,
वह अगर सम्पूर्ण प्राणियोंको मार दे तो भी वह न मारता है और
न बँधता ही है (१८ । १७); क्योंकि उसके द्वारा केवल क्रिया होती है । जैसे,
गंगाजीके द्वारा बहुतोंका पालन-पोषण होता है;
ब्राह्मण, गायें आदि सब उसका जल पीते हैं,
पर इससे गंगाजीको कोई पुण्य नहीं होता;
और गंगाजीके प्रवाहमें बहुत-से जीव बह जाते हैं,
मर जाते हैं, पर इससे गंगाजीको कोई पाप नहीं लगता । कारण कि गंगाजीमें
‘मैं सबका पालन-पोषण करती हूँ’
आदि अहंकृतभाव नहीं होता; अतः उसके द्वारा क्रियामात्र होती है,
कर्म नहीं होता । सूर्यके प्रकाशमें वेदोंका पाठ होता है,
यज्ञ आदि अनुष्ठान होते हैं तो सूर्य पुण्यका भागी नहीं होता;
और सूर्यके प्रकाशमें कोई शिकारी पशुओंको मारता है तो सूर्य
पापका भागी नहीं होता । कारण कि सूर्यमें मैं प्रकाश करता हूँ,
ऐसा अहंकृतभाव न होनेसे उसके द्वारा केवल क्रिया होती है,
कर्म नहीं होता । ऐसे ही संसारमें कई चोरियाँ होती हैं,
डकैतियाँ होती हैं, हत्याएँ होती हैं, पर उनमें हमारा अनुमोदन न होनेसे,
उनके साथ हमारा सम्बन्ध न होनेसे उनके द्वारा किये गये कर्म
हमारे लिये क्रियामात्र होते हैं अर्थात् हमें बाँधनेवाले नहीं होते । इसी प्रकार हमारे
शरीर,
इन्द्रिय, मन आदिके द्वारा जो क्रियाएँ होती हैं,
उनमें अगर हमारा कर्तृत्वभाव और फलासक्ति नहीं है तो वे क्रियाएँ
कर्म नहीं बनतीं, फलजनक नहीं बनतीं, जन्म-मरण देनेवाली नहीं बनतीं । परन्तु उन्हीं क्रियाओंमें अगर
हमारा कर्तृत्वभाव और फलासक्ति हो जाती है तो वे ही क्रियाएँ कर्म बन जाती हैं,
बन्धनकारक बन जाती हैं (५ । १२) ।
मनुष्य बालकसे जवान होता है तो कोई पाप-पुण्य नहीं लगता,
केवल क्रियामात्र होती है । शरीरमें प्राण,
अपान आदिके द्वारा जो क्रियाएँ होती हैं,
उनका कोई पाप-पुण्य नहीं लगता । इन्द्रियोंके द्वारा जो स्वतः-स्वाभाविक
क्रियाएँ होती हैं, उनका भी हमें पाप-पुष्य नहीं लगता परन्तु जब हम उन क्रियाओंमें
कर्तृत्वभाव कर लेते हैं, तब वे क्रियाएँ हमारे लिये कर्म बन जाती हैं । जैसे,
श्वास लेना क्रिया है, पर कोई प्राणायाम करता है तो वह क्रिया उसके लिये कर्म बन जाती
है,
फलजनक हो जाती है (४ । ३०) । |