।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
  आश्विन कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७९, बुधवार

गीतामें क्रिया, कर्म और भाव



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वास्तवमें सभी क्रियाएँ प्रकृतिके द्वारा ही होती हैं अर्थात् प्रकृतिमें ही होती हैं (१३ । २९); सभी क्रियाएँ प्रकृतिके गुणोंद्वारा ही होती हैं (३ । २७-२८) तथा सभी क्रियाएँ इन्द्रियोंके द्वारा ही होती हैं (५ । ९) । तात्पर्य है कि प्रकृति, प्रकृतिके कार्य गुण एवं गुणोंके कार्य इन्द्रियोंके द्वारा क्रियामात्र होती है, कर्म नहीं ।

अठारहवें अध्यायके चौदहवें श्‍लोकमें कर्मोंकी सिद्धिमें अधिष्ठान, कर्ता आदि पाँच हेतु बताये गये हैं । उनमें जो कर्ता है, वह अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला है । इसी कर्तासे कर्मसंग्रह बनता है अर्थात् बन्धनकारक कर्म बनते हैं । परन्तु मनुष्य जहाँ अपनेको कर्ता नहीं मानता अर्थात् अपनेमें अकर्तापनका अनुभव करता है, वहाँ क्रियामात्र होती है, कर्म नहीं होता (१३ । २९) ।

कर्ताके भावके अनुसार ही क्रिया सात्त्विक, राजस और तामस कर्म बन जाती है अर्थात् कर्ता सात्त्विक होता है तो कर्म सात्त्विक बन जाता है; कर्ता राजस होता है तो कर्म राजस बन जाता है; और कर्ता तामस होता है तो कर्म तामस बन जाता है (१८ । २३२५) । परन्तु जब मनुष्य तीनों गुणोंसे अतीत हो जाता है, तो फिर उसके द्वारा केवल क्रिया होती है, कर्म नहीं होता ।

हम जो कुछ देखते-सुनते हैं, उसमें अगर हमारी निर्लिप्‍तता है तो वह देखना-सुनना हमारे लिये क्रिया हो जाती है, जो कि बन्धनकारक नहीं होती । परन्तु अगर हम रागपूर्वक देखते-सुनते हैं तो वह देखना-सुननारूप क्रिया हमारे लिये कर्म बन जाती है । यही बात सभी इन्द्रियोंकी क्रियाओंके विषयमें समझनी चाहिये ।

कर्मयोगी साधक केवल लोकसंग्रहार्थ कर्म करता है, अपने लिये कुछ नहीं करता; अतः उसके द्वारा क्रियामात्र होती है, जो कि बन्धनसे मुक्‍त करनेवाली होती है (३ । २०) ।

ज्ञानयोगी साधक अपने-आपको अकर्ता अनुभव करता है; अतः उसके द्वारा क्रियामात्र होती है (१३ । २९) ।

भक्तियोगी साधक केवल भगवान्‌की प्रसन्‍नताके लिये ही कर्म करता है (११ । ५५; १२ । १०) । अतः उन क्रियाओंका भगवान्‌के साथ सम्बन्ध होनेसे वे क्रियाएँ कर्म नहीं बनतीं । इतना ही नहीं, उसकी क्रियाओंमें दिव्यता आ जाती है । वे क्रियाएँ दुनियाका हित करनेवाली हो जाती हैं ।

ध्यानयोगी, लययोगी, हठयोगी आदि कोई भी साधक अगर प्रकृतिकी क्रियाओंके साथ अपना सम्बन्ध नहीं जोड़ता तो उसके द्वारा क्रियामात्र होती है, कर्म नहीं होता ।

तात्पर्य यह हुआ कि कर्मयोगीमें निष्कामभाव होनेसे, ज्ञानयोगीमें प्रकृति और उसके कार्यकी क्रियाओंसे अपनी पृथक्‍ताका भाव होनेसे एवं भक्तियोगीमें भगवान्‌की प्रसन्‍नताका भाव होनेसे उनके द्वारा क्रियामात्र होती कर्म नहीं होता । ज्ञानी महापुरुष भी जो कुछ करता है, उसको अपने शुद्ध (राग-द्वेषरहित) स्वभावके अनुसार ही करता है; अतः उसके द्वारा कर्म नहीं बनता, केवल चेष्टामात्र (क्रियामात्र) होती है (३ । ३३) ।

नारायण ! नारायण ! नारायण !