Listen वास्तवमें सभी क्रियाएँ प्रकृतिके द्वारा ही होती हैं अर्थात्
प्रकृतिमें ही होती हैं (१३ । २९); सभी क्रियाएँ प्रकृतिके गुणोंद्वारा ही होती हैं (३ । २७-२८)
तथा सभी क्रियाएँ इन्द्रियोंके द्वारा ही होती हैं (५ । ९) । तात्पर्य है कि प्रकृति,
प्रकृतिके कार्य गुण एवं गुणोंके कार्य इन्द्रियोंके द्वारा
क्रियामात्र होती है, कर्म नहीं । अठारहवें अध्यायके चौदहवें श्लोकमें कर्मोंकी सिद्धिमें अधिष्ठान,
कर्ता आदि पाँच हेतु बताये गये हैं । उनमें जो कर्ता है,
वह अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला है । इसी कर्तासे कर्मसंग्रह
बनता है अर्थात् बन्धनकारक कर्म बनते हैं । परन्तु मनुष्य जहाँ अपनेको कर्ता नहीं मानता
अर्थात् अपनेमें अकर्तापनका अनुभव करता है, वहाँ क्रियामात्र होती है, कर्म नहीं होता (१३ । २९) । कर्ताके भावके अनुसार ही क्रिया सात्त्विक,
राजस और तामस कर्म बन जाती है अर्थात् कर्ता सात्त्विक होता
है तो कर्म सात्त्विक बन जाता है; कर्ता राजस होता है तो कर्म राजस बन जाता है;
और कर्ता तामस होता है तो कर्म तामस बन जाता है (१८ । २३‒२५) । परन्तु जब मनुष्य तीनों गुणोंसे अतीत हो जाता है,
तो फिर उसके द्वारा केवल क्रिया होती है,
कर्म नहीं होता । हम जो कुछ देखते-सुनते हैं, उसमें
अगर हमारी निर्लिप्तता है तो वह देखना-सुनना हमारे लिये क्रिया हो जाती है, जो
कि बन्धनकारक नहीं होती । परन्तु अगर हम रागपूर्वक देखते-सुनते हैं तो वह देखना-सुननारूप
क्रिया हमारे लिये कर्म बन जाती है । यही बात सभी इन्द्रियोंकी क्रियाओंके विषयमें
समझनी चाहिये । कर्मयोगी साधक केवल लोकसंग्रहार्थ कर्म करता है,
अपने लिये कुछ नहीं करता; अतः उसके द्वारा क्रियामात्र होती है,
जो कि बन्धनसे मुक्त करनेवाली होती है (३ । २०) । ज्ञानयोगी साधक अपने-आपको अकर्ता अनुभव करता है;
अतः उसके द्वारा क्रियामात्र होती है (१३ । २९) । भक्तियोगी साधक केवल भगवान्की प्रसन्नताके लिये ही कर्म करता
है (११ । ५५; १२ । १०) । अतः उन क्रियाओंका भगवान्के साथ सम्बन्ध होनेसे वे क्रियाएँ कर्म नहीं
बनतीं । इतना ही नहीं, उसकी क्रियाओंमें दिव्यता आ जाती है । वे क्रियाएँ दुनियाका
हित करनेवाली हो जाती हैं । ध्यानयोगी, लययोगी, हठयोगी आदि कोई भी साधक अगर प्रकृतिकी क्रियाओंके साथ अपना सम्बन्ध
नहीं जोड़ता तो उसके द्वारा क्रियामात्र होती है, कर्म नहीं होता । तात्पर्य यह हुआ कि कर्मयोगीमें निष्कामभाव होनेसे, ज्ञानयोगीमें
प्रकृति और उसके कार्यकी क्रियाओंसे अपनी पृथक्ताका भाव होनेसे एवं भक्तियोगीमें भगवान्की
प्रसन्नताका भाव होनेसे उनके द्वारा क्रियामात्र होती कर्म नहीं होता । ज्ञानी महापुरुष
भी जो कुछ करता है, उसको अपने शुद्ध (राग-द्वेषरहित) स्वभावके अनुसार
ही करता है; अतः उसके द्वारा कर्म नहीं बनता, केवल
चेष्टामात्र (क्रियामात्र) होती है (३ । ३३) ।
नारायण
! नारायण ! नारायण ! |