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मनसा वाचा यत्किञ्चित्कुरुते नरः । शुभाशुभं च तत्सर्वं कर्म वै गीतया मतम् ॥ परमात्मा और परमात्माकी शक्ति प्रकृति‒ये दो हैं । इनमें परमात्मा
तो हरदम एकरूप, एकरस रहते हैं, उनमें कभी परिवर्तन नहीं होता और प्रकृति हरदम परिवर्तनशील है, वह कभी परिवर्तनरहित नहीं होती[*] । इस प्रकृतिमें जो कुछ परिवर्तन होता है,
वह सब ‘क्रिया’ है और क्रियाओंका पुञ्ज ‘पदार्थ’ है । प्रकृतिमें स्वाभाविक
होनेवाली क्रियाओंके साथ जब अहंकार लग जाता है, तब उसकी ‘कर्म’ संज्ञा हो जाती है । वे ही कर्म (चाहे कायिक हों,
चाहे वाचिक हों, चाहे मानसिक हों) इष्ट, अनिष्ट और मिश्रित फल देने वाले होते हैं (१८ । १२) । उन कर्मोंको
करनेके जो भाव हैं, वे कर्तामें ही रहते हैं । ये
‘कर्म’
और ‘भाव’ शुभ तथा अशुभ‒दोनों तरहके होते हैं ।
‘शुभ’
कर्म और भाव मुक्ति देनेवाले तथा
‘अशुभ’
कर्म और भाव पतन करनेवाले होते हैं । इन्हीं कर्म और भावको भगवान्ने
चौथे अध्यायके तेरहवें श्लोकमें ‘कर्म’ और ‘गुण’ नामसे कहा है और इन्हींसे चारों वर्णोंकी रचना करनेकी बात कही
है । तात्पर्य है कि ‘कर्म’ नाम शुभ-अशुभ क्रियाओंका है और
‘गुण’
नाम शुभ-अशुभ भावोंका है । इन क्रियाओं और भावोंको लेकर ही चारों
वर्णोंकी रचना हुई है । भगवान्ने चारों वर्णोंके जो लक्षण बताये हैं,
उन सबको ‘स्वभावज कर्म’ नामसे कहा है । उनमें ब्राह्मणके शम,
दम, तप, शौच आदि नौ गुणोंको और क्षत्रियके शौर्य,
तेज, धृति आदि सात गुणोंको भी कर्म कहा है तथा वैश्यके कृषि, गौरक्ष्य
और वाणिज्य‒इन तीन कर्मोंको और शूद्रके परिचर्यात्मक कर्मको
भी कर्म कहा है । वैश्य और शूद्रके कर्मोंको तो कर्म कहना ठीक है;
क्योंकि वे कर्म ही हैं, पर भगवान्ने ब्राह्मण और क्षत्रियके गुणोंको भी कर्म कहा है
! गुणोंको भी कर्म कहनेका तात्पर्य यह है कि प्रकृतिके साथ सम्बन्ध रखते हुए मनुष्यके
द्वारा जो कुछ भी होता है, वह सब कर्म ही है अर्थात् प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे भाव,
क्रिया आदि भी कर्म ही कहे जाते हैं,
जो कि जन्म और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंको देनेवाले हो जाते
हैं । परन्तु जो मनुष्य प्रकृतिसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद करके परमात्मतत्त्वको प्राप्त
हो जाता है, उसके शरीरसे कर्म होते हुए भी वे कर्म ‘अकर्म’ कहलाते हैं । अपने स्वरूपमें स्थित रहना
‘अकर्म’
है और अकर्ममें स्थित रहते हुए शरीर,
मन, बुद्धि आदिके द्वारा जो कर्म होते हैं,
वे सभी कर्म ‘अकर्म’ होते हैं । इसका वर्णन भगवान्ने चौथे अध्यायके अठारहवें श्लोकमें
किया है कि जो कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्म देखता है,
वह योगी है, बुद्धिमान् है और उसके लिये कुछ भी करना बाकी नहीं है । इस विवेचनसे यह सिद्ध हुआ कि प्रकृतिके साथ सम्बन्ध रखते हुए
मनुष्य जो कुछ भी करता है, वह सब कर्म ही है । वह स्थूलशरीरसे सम्बन्ध रखते हुए स्थूल क्रियाएँ
करता है,
सूक्ष्मशरीरसे सम्बन्ध रखते हुए चिन्तन,
ध्यान आदि करता है और कारणशरीरसे सम्बन्ध रखते हुए समाधि लगाता
है । गीताके अनुसार ये सभी कर्म है; क्योंकि इनमें प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है । भगवान्ने अठारहवे
अध्यायके पंद्रहवें श्लोकमें कहा है कि मनुष्य अपने शरीर,
वाणी और मनसे जो कुछ भी करता है,
वह सब कर्म ही है । चौथे अध्यायके चौबीसवेंसे तीसवें श्लोकतक
जितने यज्ञोंका वर्णन हुआ है, उन सबको भगवान्ने कर्मजन्य बताया है‒‘कर्मजान्विद्धि
तान्सर्वान्’ (४ । ३२) । कर्मोंसे छूटनेके लिये फलासक्तिका त्याग करके केवल यज्ञ अर्थात्
कर्तव्य-परम्परा सुरक्षित रखनेके लिये ही कर्म किये जायँ तो वह
‘कर्मयोग’ हो जाता है (३ । ९;
१८ । ९) विवेकके द्वारा कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद किया जाय तो
वह
‘ज्ञानयोग’
हो जाता है (१३ । २३, ३४) और कर्मोंको भगवान्के अर्पण किया
जाय तो वह ‘भक्तियोग’ हो जाता है (९ । २७; १२ । ६) । नारायण
! नारायण ! नारायण !
[*] यद्यपि प्रकृति सर्ग और महासर्गकी अवस्थामें सक्रिय तथा प्रलय
और महाप्रलयकी अवस्थामें अक्रिय कही जाती है, तथापि यह अक्रिय-अवस्था सक्रिय-अवस्थाकी अपेक्षा कही जाती है
। वास्तवमें प्रकृति कभी अक्रिय नहीं रहती । इसमें सूक्ष्म परिवर्तन होता ही रहता है,
तभी तो प्रलय और महाप्रलयके बाद सर्ग और महासर्ग होता है । जब
प्रलय और महाप्रलय होता है, तब आधे प्रलय और महाप्रलयतक प्रकृति प्रलय और महाप्रलयकी तरफ
जाती है और आधे प्रलय और महाप्रलयके बाद प्रकृति सर्ग और
महासर्गकी तरफ जाती है । |