Listen गीताया
यज्ञशब्दस्तु कर्तव्यकर्मवाचकः । पालनीयस्ततो यज्ञो निष्कामैर्मानवैः सदा ॥ गीताजीके श्लोकोंपर विचार किया जाय तो यह बात सिद्ध होती है
कि निष्कामभावसे किये गये शास्त्रविहित सभी शुभकर्मोंका नाम ‘यज्ञ’ है । यज्ञोंका विशेष वर्णन चौथे अध्यायमें आता है । उसमें भगवान्
कहते हैं कि केवल यज्ञके लिये कर्म करनेवाले मनुष्यके सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते
हैं अर्थात् बन्धनकारक नहीं होते‒‘यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते’ (४ ।
२३) । इसी बातको भगवान् तीसरे अध्यायके
नवें श्लोकमें दूसरे ढंगसे कहते हैं कि ‘यज्ञके लिये किये जानेवाले कर्मोंके अतिरिक्त जो भी कर्म होते
हैं,
वे सभी बन्धनकारक होते हैं’‒‘यज्ञार्थात्
कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः ।’
चौथे अध्यायके चौबीसवेंसे तीसवें श्लोकतक भगवान् बारह प्रकारके
यज्ञोंका वर्णन करते है‒१. ब्रह्मयज्ञ, २. भगवदर्पणरूप यज्ञ, ३. अभिन्नतारूप यज्ञ, ४. संयमरूप यज्ञ, ५. विषय-हवनरूप यज्ञ ६. समाधिरूप यज्ञ,
७. द्रव्ययज्ञ, ८. तपोयज्ञ, ९. योगयज्ञ, १०. स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ,
११. प्राणायामरूप यज्ञ और १२. स्तम्भवृत्ति प्राणायामरूप यज्ञ । फिर इकतीसवें श्लोकमें
भगवान् कहते हैं कि यज्ञसे बचे हुए अमृतका अनुभव करनेवाले सनातन परब्रह्मको प्राप्त
होते हैं‒‘यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्’ (४ ।
३१) । इसी बातको भगवान्ने तीसरे अध्यायके तेरहवें श्लोकमें
‘यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः’
पदोंसे कहा है कि ‘यज्ञशेषका अनुभव करनेवाले श्रेष्ठ मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त
हो जाते हैं ।’ इस प्रकार तीसरे अध्यायके नवें और तेरहवें तथा चौथे अध्यायके
तेईसवें और इकतीसवें‒इन चारों ही श्लोकोंमें यज्ञका फल बताया
गया है‒सम्पूर्ण पापोंका नाश; संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद और परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति
। अतः परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके जितने भी उपाय हैं, वे
सब-के-सब गीताके ‘यज्ञ’
शब्दके अन्तर्गत आ जाते हैं । गीताका ‘यज्ञ’ शब्द इतना व्यापक है कि इसमें यज्ञ,
दान, तप, तीर्थ, व्रत, होम आदि सभी शास्त्रविहित शुभकर्म आ जाते हैं । चौथे अध्यायके
बत्तीसवें श्लोकमें वेदकी वाणीमें बहुत-से यज्ञोंका विस्तारसे वर्णन हुआ है‒ऐसा कहकर
भगवान्ने दहरादिकी उपासनाका भी ‘यज्ञ’ शब्दमें अन्तर्भाव कर दिया है,
जिसका वर्णन गीतामें नहीं है, प्रत्युत उपनिषद्में है । फिर भगवान् कहते हैं कि ‘इन सब यज्ञोंको तू कर्मजन्य जान और
इस प्रकार जाननेसे तू मुक्त हो जायगा’‒‘एवं
ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे’ (४ । ३२) ।
चौथे अध्यायके नवें श्लोकमें भगवान् कहते हैं कि
‘मेरे जन्म और कर्म दिव्य है’‒‘जन्म कर्म च मे दिव्यम्’ । अपने कर्मोंकी दिव्यताका वर्णन भगवान् तेरहवें-चौदहवें श्लोकोंमें
करते हैं । उनमें भगवान् कहते हैं कि सृष्टि-रचना आदिका कर्ता होनेपर भी मुझे तू अकर्ता
जान, क्योंकि कर्मफलमें मेरी कोई स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म बाँधते नहीं । इस प्रकार मुझे तत्त्वसे जाननेवाला
भी कर्मोंसे नहीं बँधता । तात्पर्य है कि जो मेरी तरह कर्तृत्वाभिमान और फलासक्तिसे
रहित होकर कर्म करेगा, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधेगा । इस प्रकार भगवान्ने अपने कर्मोंकी
दिव्यता बतायी । जो कर्म बाँधनेवाले हैं, वे
ही कर्म मुक्त करनेवाले हो जायँ‒यही कर्मोंकी दिव्यता है । फिर पंद्रहवें श्लोकमें भगवान्
‘एवं
ज्ञात्वा......’ पदोंसे कहते हैं
कि इस प्रकार जानकर मुमुक्षु पुरुषोंने भी कर्म किये हैं,
इसलिये तू भी कर्म ही कर‒‘कुरु कर्मैव’ । सोलहवें श्लोकमें कर्मोंसे निर्लिप्त रहनेके इसी तत्त्वको
विस्तारसे कहनेके लिये भगवान् प्रतिज्ञा करते हैं और ‘यज्ज्ञात्वा
मोक्ष्यसेऽशुभात्’ पदोंसे उसे जाननेका फल मुक्त होना बताते हैं । यही बात भगवान्
उस विषयका उपसंहार करते हुए ‘एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे’ (४ । ३२) पदोंसे कहते हैं । इस प्रकार कर्तृत्वाभिमान और आसक्तिसे रहित होकर किये गये
सम्पूर्ण शुभ कर्म ‘यज्ञ’ के अन्तर्गत आ जाते हैं । |