।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
  आश्विन कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०७९, शनिवार

गीतामें यज्ञ’ शब्दकी व्यापकता



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गीतामें कहीं तो यज्ञ, दान और तप‒इन तीन शुभ कर्मोंका वर्णन आता है (१७ । २४-२५, २७; १८ । ३, ५) कहीं यज्ञ, दान, तप और वेदाध्ययन‒इन चार शुभ कर्मोंका वर्णन आता है (८ । २८; ११ । ५३) और कहीं यज्ञ, दान, तप, वेदाध्ययन और क्रिया‒इन पाँच शुभ कर्मोंका वर्णन आता है (११ । ४८) । वास्तवमें तो एक यज्ञके उल्लेखसे ही सम्पूर्ण शुभ कर्मोंका उल्लेख हो जाता है ।

तीसरे अध्यायके दसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ कहते हैं कि सृष्टिके आदिमें प्रजापति ब्रह्माजीने यज्ञोंके सहित प्रजाकी रचना की‒सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा’ । यहाँ प्रजाः’ पदके अन्तर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि सभी आ जाते हैं और उसके साथ सहयज्ञाः’ विशेषण देनेसे यह शंका होती है कि यज्ञमें सबका अधिकार तो है नहीं, फिर भगवान्‌ने सारे प्रजाजनोंके साथ यह विशेषण क्यों लगाया ? इसका समाधान यही है कि यहाँ उस यज्ञकी बात नहीं है, जिसमें सबका अधिकार नहीं । यहाँयज्ञ’ शब्द कर्तव्यकर्मोंका वाचक है । अपने वर्ण, आश्रम, धर्म, जाति, स्वभाव, देश, काल आदिके अनुसार प्राप्त सभी कर्तव्यकर्मयज्ञ’ के अन्तर्गत आ जाते हैं । दूसरेके हितकी भावनासे किये जानेवाले सब कर्म भीयज्ञ’ ही हैं । स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य’ (१८ । ४६) पदोंसे अपने कर्तव्य-कर्मोंके द्वारा परमात्माका पूजन करनेकी जो बात कही गयी है, वह भी यज्ञ’ के ही अन्तर्गत है ।

संखिया, भिलावा आदि जो जहर हैं, उनको जब वैद्यलोग शुद्ध करके औषधरूपमें देते हैं, तब वे जहर भी अमृतकी तरह होकर बड़े-बड़े रोगोंको दूर करनेवाले बन जाते हैं । इसी तरह कामना, ममता, आसक्‍ति, पक्षपात, विषमता, स्वार्थ, अभिमान आदि सब जहररूप हैं । कर्मोंसे इस जहरके भागको निकाल देनेसे वे कर्म अमृतमय होकर जन्म-मरणरूप महान् रोगको दूर करनेवाले बन जाते हैं । ऐसे अमृतमय कर्म हीयज्ञ’ कहलाते हैं ।

सबके मूल हैं‒परमात्मा । परमात्मासे वेद प्रकट होते हैं । वेद कर्तव्यपालनकी विधि बताते हैं । मनुष्य उस विधिसे कर्तव्यपालन करते हैं । कर्तव्यपालनसे यज्ञ होता है और यज्ञसे वर्षा होती है । वर्षासे अन्‍न होता है, अन्‍नसे प्राणी होते हैं और उन्हीं प्राणियोंमेंसे मनुष्य कर्तव्यपालनसे यज्ञ करते हैं (३ । १४-१५) । इस तरह यह सृष्टि-चक्र चल रहा है । परमात्मा सर्वव्यापी होनेपर भी कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञमें नित्य विद्यमान रहते हैं‒‘तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्’ (३ । १५) । तात्पर्य है कि जहाँ निष्कामभावसे अपने कर्तव्यका पालन किया जाता है, वहाँ परमात्मा रहते हैं । अतः परमात्मप्राप्‍तिके इच्छुक मनुष्य अपने कर्तव्य-कर्मोंके द्वारा उन्हें सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकते हैं । परन्तु जो मनुष्य यज्ञ नहीं करता, अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, उसके लिये भगवान्‌ कहते हैं किवह तो चोर ही है’‒स्तेन एव सः’ (३ । १२);  ‘वह पापका भी भक्षण करता है’भुञ्जते ते त्वघम्’ (३ । १३)वह इन्द्रियोंके द्वारा भोगोंमें रमण करनेवाला अघायु (पापमय जीवन बितानेवाला) मनुष्य व्यर्थ ही जीता है’‒अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति’ (३ । १६) ।

यज्ञ अर्थात्‌ कर्तव्यपालनकी जिम्मेवारी मनुष्यपर ही है । अतः मनुष्यको चाहिये कि वह निष्कामभावसे या भगवत्पूजनके भावसे अपने कर्तव्यका तत्परतापूर्वक पालन करे । अपने-अपने कर्तव्य-कर्ममें तत्परतापूर्वक लगा हुआ मनुष्य परमात्मतत्त्वको प्राप्त कर लेता है‒‘स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः’ (१८ । ४५) ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !