Listen गीतामें कहीं तो यज्ञ, दान और तप‒इन तीन शुभ कर्मोंका वर्णन
आता है (१७ । २४-२५, २७; १८ । ३, ५) कहीं यज्ञ, दान, तप और वेदाध्ययन‒इन चार शुभ कर्मोंका वर्णन आता है (८ । २८;
११ । ५३) और कहीं यज्ञ, दान, तप, वेदाध्ययन और क्रिया‒इन पाँच शुभ कर्मोंका वर्णन आता है (११
। ४८) । वास्तवमें तो एक यज्ञके उल्लेखसे ही सम्पूर्ण शुभ कर्मोंका उल्लेख हो जाता
है । तीसरे अध्यायके दसवें श्लोकमें भगवान् कहते हैं कि सृष्टिके
आदिमें प्रजापति ब्रह्माजीने यज्ञोंके सहित प्रजाकी रचना की‒‘सहयज्ञाः
प्रजाः सृष्ट्वा’ । यहाँ ‘प्रजाः’
पदके अन्तर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि सभी आ जाते हैं और उसके साथ
‘सहयज्ञाः’
विशेषण देनेसे यह शंका होती है कि यज्ञमें सबका अधिकार तो है
नहीं,
फिर भगवान्ने सारे प्रजाजनोंके साथ यह विशेषण क्यों लगाया ?
इसका समाधान यही है कि यहाँ उस यज्ञकी बात नहीं है,
जिसमें सबका अधिकार नहीं । यहाँ
‘यज्ञ’
शब्द कर्तव्यकर्मोंका वाचक है । अपने वर्ण, आश्रम, धर्म,
जाति, स्वभाव, देश, काल आदिके अनुसार प्राप्त सभी कर्तव्यकर्म
‘यज्ञ’
के अन्तर्गत आ जाते हैं । दूसरेके
हितकी भावनासे किये जानेवाले सब कर्म भी
‘यज्ञ’ ही
हैं । ‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य’ (१८ ।
४६) पदोंसे अपने कर्तव्य-कर्मोंके
द्वारा परमात्माका पूजन करनेकी जो बात कही गयी है, वह भी ‘यज्ञ’ के ही अन्तर्गत है । संखिया, भिलावा आदि जो जहर हैं, उनको जब वैद्यलोग शुद्ध करके
औषधरूपमें देते हैं, तब वे जहर भी अमृतकी तरह होकर बड़े-बड़े रोगोंको दूर करनेवाले
बन जाते हैं । इसी तरह कामना, ममता, आसक्ति, पक्षपात, विषमता, स्वार्थ, अभिमान आदि सब जहररूप हैं । कर्मोंसे इस जहरके
भागको निकाल देनेसे वे कर्म अमृतमय होकर जन्म-मरणरूप महान् रोगको दूर करनेवाले बन जाते
हैं । ऐसे अमृतमय कर्म ही ‘यज्ञ’ कहलाते हैं । सबके मूल हैं‒परमात्मा । परमात्मासे वेद प्रकट होते हैं । वेद
कर्तव्यपालनकी विधि बताते हैं । मनुष्य उस विधिसे कर्तव्यपालन करते हैं । कर्तव्यपालनसे
यज्ञ होता है और यज्ञसे वर्षा होती है । वर्षासे अन्न होता है,
अन्नसे प्राणी होते हैं और उन्हीं प्राणियोंमेंसे मनुष्य कर्तव्यपालनसे
यज्ञ करते हैं (३ । १४-१५) । इस तरह यह सृष्टि-चक्र चल रहा है । परमात्मा सर्वव्यापी
होनेपर भी कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञमें नित्य विद्यमान रहते हैं‒‘तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्’ (३ । १५) ।
तात्पर्य है कि जहाँ निष्कामभावसे अपने कर्तव्यका पालन किया जाता है,
वहाँ परमात्मा रहते हैं । अतः परमात्मप्राप्तिके इच्छुक मनुष्य
अपने कर्तव्य-कर्मोंके द्वारा उन्हें सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकते हैं । परन्तु जो
मनुष्य यज्ञ नहीं करता, अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता,
उसके लिये भगवान् कहते हैं कि
‘वह तो चोर ही है’‒‘स्तेन
एव सः’ (३ ।
१२);
‘वह पापका भी भक्षण करता है’‒‘भुञ्जते ते त्वघम्’ (३ । १३)
‘वह इन्द्रियोंके द्वारा भोगोंमें
रमण करनेवाला अघायु (पापमय जीवन बितानेवाला) मनुष्य व्यर्थ ही जीता है’‒‘अघायुरिन्द्रियारामो
मोघं पार्थ स जीवति’ (३ । १६) ।
यज्ञ अर्थात् कर्तव्यपालनकी जिम्मेवारी मनुष्यपर
ही है । अतः मनुष्यको चाहिये कि वह निष्कामभावसे या भगवत्पूजनके भावसे अपने कर्तव्यका
तत्परतापूर्वक पालन करे । अपने-अपने कर्तव्य-कर्ममें तत्परतापूर्वक लगा हुआ मनुष्य
परमात्मतत्त्वको प्राप्त कर लेता है‒‘स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः’ (१८ ।
४५) । नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! |