।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
      आश्विन अमावस्या, वि.सं.-२०७९, रविवार

गीतामें लोकसंग्रह



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साधकात्  प्रभुसिद्धाभ्यां  जायते लोकसंग्रहः ।

येनोन्मार्गं परित्यज्य भवन्ति धार्मिका जनाः ॥

‘लोक’ शब्द स्वर्ग, मृत्यु और पाताल‒इन तीन लोकोंका वाचक है । इन तीनों लोकोंकी मर्यादाको स्थायी रखनेके लिये कर्म करनालोकसंग्रह’ है । यह लोकसंग्रह मनुष्यके ही अधीन है; क्योंकि मनुष्यशरीरमें किये गये कर्मोंके फलरूपमें ही ये स्वर्ग, मृत्यु और पाताल‒तीनों लोक होते हैं (१४ । ८) ।

जिसको लोग आदरकी दृष्टिसे देखते हैं, आदर्श मानते हैं, और जिसके आचरणों तथा वचनोंसे लोग उन्मार्गसे बचकर सन्मार्गपर चलते हैं, उसके द्वारा लोकसंग्रह होता है । यह लोकसंग्रह साधक, सिद्ध और भगवान्‌‒इन तीनोंके द्वारा होता है; जैसे‒

(१) साधकके द्वारा लोकसंग्रह‒भगवान्‌ने अर्जुनको साधकमात्रका प्रतिनिधि बनाकर कहा कि पहले राजा जनक-जैसे महापुरुष कर्मोंके द्वारा ही परमसिद्धिको प्राप्त हुए हैं; अतः लोकसंग्रहको देखते हुए तू भी उनकी तरह अनासक्तभावसे कर्म करनेके योग्य है (३ । २०) ।

(२) सिद्धके द्वारा लोकसंग्रह‒सिद्ध महापुरुष जो-जो आचरण करते हैं, अन्य मनुष्य भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं और वे अपनी वाणीसे जो कुछ कह देते हैं, दूसरे लोग भी उसीका अनुवर्तन करते हैं (३ । २१) । कर्मोंमें आसक्त मनुष्य जिस प्रकार सावधानी और तत्परतापूर्वक कर्म करते हैं, सिद्ध महापुरुष भी लोकसंग्रहकी इच्छासे अनासक्तभावसे उसी प्रकार कर्म करे (३ । २५) ।

(३) भगवान्‌के द्वारा लोकसंग्रह‒भगवान्‌ अपने विषयमें कहते हैं कि त्रिलोकीमें मेरे लिये न तो कुछ करना बाकी है और न कुछ पाना बाकी है, तो भी मैं कर्तव्य-कर्म करता हूँ । यदि मैं निरालस्य होकर कर्तव्य-कर्म न करूँ तो लोग मेरा ही अनुवर्तन करेंगे अर्थात् वे भी अपना कर्तव्य-कर्म छोड़ देंगे, जिससे उनका पतन हो जायगा । अतः यदि मैं कर्तव्य-कर्म न करूँ तो मैं संकरताको उत्पन्‍न करनेवाला और प्रजाका नाश करनेवाला बन जाऊँगा (३ । २२२४) ।

तात्पर्य है कि वास्तवमें लोकसंग्रह भगवान्‌ और सिद्धके द्वारा ही होता है; क्योंकि उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं होता । ऐसे तो साधक भी मर्यादामें चलता है और उसके द्वारा भी लोकसंग्रह होता है, पर वैसा लोकसंग्रह नहीं होता; क्योंकि साधकमें अपने कल्याणका प्रयोजन भी रहता है ।

ज्ञातव्य

भगवान्‌ और सिद्ध महापुरुषका भाव सर्वथा निष्काम होनेसे उनके द्वारा शुद्ध, आदर्श लोकसंग्रह होता है । साधकका भाव सर्वथा निष्काम नहीं होता, प्रत्युत उसका उद्देश्य निष्काम होनेका होता है; अतः उसके द्वारा गौणरीतिसे लोकसंग्रह होता है । सामान्य मनुष्यमें सकामभाव रहता है; अतः उसके द्वारा विशेष लोकसंग्रह नहीं होता । वह जो शास्त्रविहित क्रिया करता है, केवल उस क्रियासे ही सामान्य लोकसंग्रह होता है ।