Listen साधकात्
प्रभुसिद्धाभ्यां जायते लोकसंग्रहः । येनोन्मार्गं परित्यज्य भवन्ति धार्मिका जनाः ॥ ‘लोक’ शब्द स्वर्ग, मृत्यु और पाताल‒इन तीन लोकोंका वाचक है । इन तीनों लोकोंकी
मर्यादाको स्थायी रखनेके लिये कर्म करना ‘लोकसंग्रह’ है । यह लोकसंग्रह मनुष्यके ही अधीन है;
क्योंकि मनुष्यशरीरमें किये गये कर्मोंके फलरूपमें
ही ये स्वर्ग, मृत्यु और पाताल‒तीनों लोक होते हैं (१४ । ८) । जिसको लोग आदरकी दृष्टिसे देखते हैं,
आदर्श मानते हैं, और जिसके आचरणों तथा वचनोंसे लोग उन्मार्गसे बचकर सन्मार्गपर
चलते हैं,
उसके द्वारा लोकसंग्रह होता है । यह लोकसंग्रह साधक,
सिद्ध और भगवान्‒इन तीनोंके द्वारा होता है;
जैसे‒ (१) साधकके द्वारा लोकसंग्रह‒भगवान्ने अर्जुनको साधकमात्रका प्रतिनिधि बनाकर कहा कि पहले
राजा जनक-जैसे महापुरुष कर्मोंके द्वारा ही परमसिद्धिको प्राप्त हुए हैं;
अतः लोकसंग्रहको देखते हुए तू भी उनकी तरह अनासक्तभावसे कर्म
करनेके योग्य है (३ । २०) । (२) सिद्धके द्वारा लोकसंग्रह‒सिद्ध महापुरुष जो-जो आचरण करते हैं,
अन्य मनुष्य भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं और वे अपनी वाणीसे
जो कुछ कह देते हैं, दूसरे लोग भी उसीका अनुवर्तन करते हैं (३ । २१) । कर्मोंमें
आसक्त मनुष्य जिस प्रकार सावधानी और तत्परतापूर्वक कर्म करते हैं,
सिद्ध महापुरुष भी लोकसंग्रहकी इच्छासे अनासक्तभावसे उसी प्रकार
कर्म करे (३ । २५) । (३) भगवान्के द्वारा लोकसंग्रह‒भगवान् अपने विषयमें कहते हैं कि त्रिलोकीमें मेरे लिये न
तो कुछ करना बाकी है और न कुछ पाना बाकी है, तो भी मैं कर्तव्य-कर्म करता हूँ । यदि मैं निरालस्य होकर कर्तव्य-कर्म
न करूँ तो लोग मेरा ही अनुवर्तन करेंगे अर्थात् वे भी अपना कर्तव्य-कर्म छोड़ देंगे,
जिससे उनका पतन हो जायगा । अतः यदि मैं कर्तव्य-कर्म न करूँ
तो मैं संकरताको उत्पन्न करनेवाला और प्रजाका नाश करनेवाला बन जाऊँगा (३ । २२‒२४) । तात्पर्य है कि वास्तवमें लोकसंग्रह भगवान् और सिद्धके द्वारा
ही होता है; क्योंकि उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं होता । ऐसे तो साधक भी मर्यादामें चलता है
और उसके द्वारा भी लोकसंग्रह होता है, पर वैसा लोकसंग्रह नहीं होता; क्योंकि साधकमें अपने कल्याणका प्रयोजन भी रहता है । ज्ञातव्य
भगवान् और सिद्ध महापुरुषका भाव सर्वथा निष्काम होनेसे उनके द्वारा शुद्ध, आदर्श लोकसंग्रह होता है । साधकका भाव सर्वथा निष्काम नहीं होता, प्रत्युत उसका उद्देश्य निष्काम होनेका होता है; अतः उसके द्वारा गौणरीतिसे लोकसंग्रह होता है । सामान्य मनुष्यमें सकामभाव रहता है; अतः उसके द्वारा विशेष लोकसंग्रह नहीं होता । वह जो शास्त्रविहित क्रिया करता है, केवल उस क्रियासे ही सामान्य लोकसंग्रह होता है । |