।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   आश्विन शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०७९, सोमवार

गीतामें लोकसंग्रह



Listen



लोकसंग्रह दो तरहसे होता है‒

(१) आचरणसे‒मनुष्य जिस वर्ण, आश्रममें स्थित है, उसके अनुसार शास्त्रने जिसके लिये जिस कर्मकी आज्ञा दी है, उस कर्मको निष्कामभावसे केवल संसारके हितके लिये ही करना ।

(२) वचनसे‒अपने सिवाय दूसरे वर्णों एवं आश्रमोंमें रहनेवाले जितने लोग हैं, उनको उन्मार्गसे बचाकर सन्मार्गपर लाना ।

इन दोनों तरहसे होनेवाले लोकसंग्रहमें अपने आचरणोंसे लोगोंपर जो असर पड़ता है, वह असर केवल वचनोंसे नहीं पड़ता । जिसके आचरण अपने वर्ण-आश्रमकी मर्यादाके अनुसार होते हैं; उसीके वचनोंका असर दूसरोंपर पड़ता है । इन्हीं बातोंको बतानेके लिये भगवान्‌ने तीसरे अध्यायके इक्कीसवें श्‍लोकके पूर्वार्धमें ‘यत्’-‘यत्’, ‘तत्’-‘तत्’ और एव’ये पाँच शब्द दिये है; और उत्तरार्धमें ‘यत्’ तथा ‘तत्’‒ये दो ही शब्द दिये है[*] । इसका तात्पर्य यह है कि अपने आचरणका प्रभाव दूसरोंपर अधिक पड़ता है और वचनोंका प्रभाव दूसरोंपर कम पड़ता है; अतः आचरण करना मुख्य है । हाँ, कोई बहुत श्रद्धालु हो तो उसपर केवल वचनोंका भी असर पड़ सकता है ।

मनुष्य अपने आचरण लोकमर्यादाके अनुसार ही करे । उनमें किसी प्रकारका दिखावटीपन न हो । उन आचरणोंको कोई देखे या न देखे, कोई माने या न माने, इसकी परवाह न करके वह समुदायमें अथवा एकान्तमें सुचारुरूपसे अपने कर्तव्यका पालन करता रहे । उन कर्मोंको करनेमें किंचिन्मात्र भी व्यक्तिगत स्वार्थका भाव न हो, प्रत्युत विश्वमात्रके हितका भाव हो । तात्पर्य है कि सम्पूर्ण कर्म संसारमात्रके हितकी दृष्टिसे ही करे ।

अपने कल्याणका भाव रखकर कर्म करना भी स्वार्थ है । अतः लोकसंग्रह करनेवाले मनुष्यको इस भावका भी त्याग कर देना चाहिये और केवल संसारमात्रके कल्याणका भाव रखना चाहिये । यद्यपि अपने कल्याणका भाव रखना सकामभाव नहीं है, तो भी व्यक्तिगत कल्याणका भाव लोकसंग्रहको पूरा नहीं होने देता । जो मनुष्य अपने कल्याणका भी भाव न रखकर, केवल दूसरोंके कल्याणका भाव रखकर अपने कर्तव्यका पालन करता है, उसके द्वारा स्वतः ही लोगोंका हित होता है । जैसे बर्फके पास जानेपर ठण्डक मिलती है, आगके पास जानेपर गरमी मिलती है, ऐसे ही उस मनुष्यके पास जानेपर, उसको याद करनेपर भी लोगोंका कल्याण होता है । अगर ऐसा मनुष्य गृहस्थाश्रममें हो तो उसके घरका अन्‍न-जल लेनेवालेका भी कल्याण हो जाता है और अगर वह संन्यासाश्रममें हो तो वह जिसके अन्‍न-जल आदिको ग्रहण करता है, उस (अन्‍न-जल देनेवाले)-का भी कल्याण हो जाता है । ऐसे लोकसंग्रही महापुरुषके दर्शन, भाषण और चिन्तनसे भी लोगोंका कल्याण होता है । उसके जीवित रहनेपर उसके आचरणों, वचनों, भावोंका प्राणियोंपर जैसा असर पड़ता है, वैसा ही असर उसका शरीर न रहनेपर भी पड़ता है । जिस स्थानपर वह महापुरुष रहता था, उस स्थानपर कोई अपरिचित व्यक्ति भी चला जाय तो उस व्यक्तिको वहाँ बड़ी शान्ति मिलती है । उस महापुरुषके दिये हुए उपदेश आकाशमें स्थायीरूपसे रहते हैं, जो अधिकारी व्यक्तिको उसकी जिज्ञासा, उत्कण्ठाके अनुसार मिलते रहते हैं । अधिकारी व्यक्तिको इस बातका पता नहीं लगता कि वे भाव कहाँसे आये, पर वह उन भावोंके आनेमें भगवान्‌ या सन्तोंकी कृपाको ही कारण मानता है ।



[*] यद्यदाचरति  श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।

  स यत्यमाणं कुरुते  लोकस्तदनुवर्तते ॥

                                    (गीता ३ । २१)