।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   आश्विन शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

गीतामें लोकसंग्रह



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महापुरुषके द्वारा जो भी क्रियाएँ होती हैं, वे सब आदर्शरूपसे होती हैं । कहीं-कहीं उनकी क्रियाएँ अनुयायी-रूपसे भी दीखती हैं । जिस तरह आस्तिक लोग शास्त्रविहित कर्मोंमें एवं उन कर्मोंके फलोंमें दृढ़ श्रद्धा-विश्वास रखते हुए सकामभावसे तत्परतापूर्वक कर्म करते हैं, उसी तरह ज्ञानी महापुरुष भी तत्परतासे कर्म करता है (३ । २५) ।

कर्मयोगी साधकमें कर्म करनेका जो स्वभाव होता है, वही स्वभाव सिद्धावस्थामें भी रहता है । अतः कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषमें स्वाभाविक ही कर्म करनेकी प्रवृत्ति दीखती है । परन्तु ज्ञानयोगसे सिद्ध महापुरुषमें वैसी प्रवृत्ति नहीं दीखती । कारण कि ज्ञानयोगी पहलेसे ही अपनेको असंग अनुभव करता है । अतः सिद्धावस्थामें उसकी कर्मों और पदार्थोंसे स्वाभाविक ही उपरति रहती है, जो ज्ञानमार्गके साधकोंके लिये आदर्श होती है; और उस महापुरुषकी पदार्थ आदिसे जो तटस्थता है, वह दुनियामात्रके लिये हितकारी होती है ।

प्रश्न‒सिद्ध महापुरुषमें अहंभाव नहीं रहता, फिर उसके द्वारा लोकसंग्रह, क्रियाएँ कैसे होती हैं ?

उत्तर‒उस महापुरुषके शरीरद्वारा क्रिया होनेमें दो कारण हैं‒एक उनका प्रारब्ध और दूसरा प्राणियोंका भाव । जिस प्रारब्धके प्रवाहसे उसको शरीर मिला है, उसी प्रारब्धसे उसके द्वारा सभी क्रियाएँ होती हैं; और उसके सामने जो प्राणी आते हैं, उन प्राणियोंके भावोंके अनुसार ही उसके द्वारा क्रियाएँ होती हैं । अगर उसके पास प्रेमभाव रखनेवाला, श्रद्धालु मनुष्य आता है तो उसके साथ उस महापुरुषका बर्ताव भी प्रेमयुक्त होता है; और अगर उदासीन अथवा वैरभाव रखनेवाला मनुष्य आता है तो उस महापुरुषका बर्ताव भी उदासीनकी तरह होता है (वैरभाव महापुरुषमें होता ही नहीं) ।

संसारमें ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग आदि जिस योग-साधनकी जिस समय आवश्यकता होती है, उस समय सन्त-महापुरुषोंके द्वारा उसी योग-साधनका प्रचार होता है । जैसे, जिस समय संसारके लिये ज्ञानयोगकी आवश्यकता थी, उस समय श्रीशंकराचार्यजीके द्वारा विशेषतासे ज्ञानयोगका प्रचार हुआ; और जिस समय संसारके लिये भक्तियोगकी आवश्यकता थी, उस समय श्रीरामानुजाचार्यजीके द्वारा विशेषतासे भक्तियोगका प्रचार हुआ । जैसे भगवान्‌के द्वारा होनेवाली सभी क्रियाएँ प्राणिमात्रके हितके लिये ही होती हैं, ऐसे ही महापुरुषके द्वारा होनेवाली सभी क्रियाएँ प्राणिमात्रके हितके लिये स्वतः होती हैं । उसके आचरण एवं वचन (उपदेश)‒दोनों ही प्राणिमात्रके हितके लिये होते हैं, पर उसके भीतर हित करनेका अभिमान नहीं होता । जैसे सूर्य भगवान्‌से दुनियामात्रको प्रकाश एवं कर्म करनेकी प्रेरणा मिलती है, ऐसे ही उस महापुरुषके आचरणों तथा वचनोंसे दुनियामात्रको प्रकाश (ज्ञान) एवं कर्तव्य-कर्म करनेकी प्रेरणा मिलती है, चाहे उसका शरीर रहे अथवा न रहे । जब भगवान्‌ श्रीराम और श्रीकृष्णके अवतार हुए, तब उनको साक्षात् भगवान्‌ माननेवाले मनुष्य बहुत कम थे, पर आज उनको भगवान्‌ माननेवाले मनुष्योंकी संख्या ज्यादा है । कलियुगके कारण मनुष्योंके आचरणोंमें तो शिथिलता आयी है, पर उनको भगवान्‌ माननेका भाव बढ़ा है । ऐसे ही महापुरुषोंका शरीर न रहनेके बाद उनके सिद्धान्तोंका, उनके वचनोंका विशेष प्रचार होता है ।

जबतक मनुष्यमें अहंभाव रहता है, तबतक उसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ दुनियाके लिये हितकारी नहीं होती । अहंभाव मिटनेपर उसकी सम्पूर्ण क्रियाएं दुनियाके लिये हितकारी, आदर्श हो जाती हैं । हाँ, सकामभावसे कर्म करनेवाले मनुष्योंके कर्म भी दूसरोंके लिये आदर्श होते हैं, पर वे कर्म कल्याण करनेवाले नहीं होते । सकामभावसे कर्म करनेवाले मनुष्योंमें उतनी ही शुद्धि आती है, जितनेसे वे भोगोंको भोग सकें । उनमें वह शुद्धि नहीं आती, जिससे कल्याण हो जाय ।

जिन गाँवोंमें, प्रान्तोंमें सन्त-महापुरुष हुए हैं अथवा गये हैं, वे गाँव आज भी शुद्ध हैं अर्थात् आज भी वहाँके लोगोंमें आस्तिकता, अच्छे विचार, अच्छे आचरण आदि देखनेको मिलते हैं । परन्तु जिन गाँवोंमें न तो कोई सन्त हुआ है और न कोई सन्त गया ही है, उन गाँवोंके लोग भूत-प्रेतोंकी तरह ही होते हैं ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !