Listen महापुरुषके द्वारा जो भी क्रियाएँ होती हैं,
वे सब आदर्शरूपसे होती हैं । कहीं-कहीं उनकी क्रियाएँ अनुयायी-रूपसे
भी दीखती हैं । जिस तरह आस्तिक लोग शास्त्रविहित कर्मोंमें एवं उन कर्मोंके फलोंमें
दृढ़ श्रद्धा-विश्वास रखते हुए सकामभावसे तत्परतापूर्वक कर्म करते हैं,
उसी तरह ज्ञानी महापुरुष भी तत्परतासे कर्म करता है (३ । २५)
। कर्मयोगी साधकमें कर्म करनेका जो स्वभाव होता है,
वही स्वभाव सिद्धावस्थामें भी रहता है । अतः कर्मयोगसे सिद्ध
महापुरुषमें स्वाभाविक ही कर्म करनेकी प्रवृत्ति दीखती है । परन्तु ज्ञानयोगसे सिद्ध
महापुरुषमें वैसी प्रवृत्ति नहीं दीखती । कारण कि ज्ञानयोगी पहलेसे ही अपनेको असंग
अनुभव करता है । अतः सिद्धावस्थामें उसकी कर्मों और पदार्थोंसे स्वाभाविक ही उपरति
रहती है, जो ज्ञानमार्गके साधकोंके लिये आदर्श होती है;
और उस महापुरुषकी पदार्थ आदिसे जो तटस्थता है,
वह दुनियामात्रके लिये हितकारी होती है । प्रश्न‒सिद्ध
महापुरुषमें अहंभाव नहीं रहता, फिर
उसके द्वारा लोकसंग्रह, क्रियाएँ कैसे होती
हैं ? उत्तर‒उस महापुरुषके शरीरद्वारा क्रिया होनेमें दो कारण हैं‒एक उनका
प्रारब्ध और दूसरा प्राणियोंका भाव । जिस प्रारब्धके प्रवाहसे
उसको शरीर मिला है, उसी प्रारब्धसे उसके द्वारा सभी क्रियाएँ होती हैं;
और उसके सामने जो प्राणी आते हैं,
उन प्राणियोंके भावोंके अनुसार ही उसके द्वारा क्रियाएँ होती
हैं । अगर उसके पास प्रेमभाव रखनेवाला, श्रद्धालु मनुष्य आता है तो उसके साथ उस महापुरुषका बर्ताव भी
प्रेमयुक्त होता है; और अगर उदासीन अथवा वैरभाव रखनेवाला मनुष्य आता है तो उस महापुरुषका
बर्ताव भी उदासीनकी तरह होता है (वैरभाव महापुरुषमें होता ही नहीं) । संसारमें ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग आदि जिस योग-साधनकी जिस समय आवश्यकता होती है,
उस समय सन्त-महापुरुषोंके द्वारा उसी योग-साधनका प्रचार होता
है । जैसे, जिस समय संसारके लिये ज्ञानयोगकी आवश्यकता थी, उस समय श्रीशंकराचार्यजीके द्वारा विशेषतासे ज्ञानयोगका प्रचार
हुआ;
और जिस समय संसारके लिये भक्तियोगकी आवश्यकता थी,
उस समय श्रीरामानुजाचार्यजीके द्वारा विशेषतासे भक्तियोगका प्रचार
हुआ । जैसे भगवान्के द्वारा होनेवाली सभी क्रियाएँ प्राणिमात्रके हितके लिये ही होती
हैं,
ऐसे ही महापुरुषके द्वारा होनेवाली सभी क्रियाएँ प्राणिमात्रके
हितके लिये स्वतः होती हैं । उसके आचरण एवं वचन (उपदेश)‒दोनों ही प्राणिमात्रके हितके
लिये होते हैं, पर उसके भीतर हित करनेका अभिमान नहीं होता । जैसे सूर्य भगवान्से दुनियामात्रको
प्रकाश एवं कर्म करनेकी प्रेरणा मिलती है, ऐसे ही उस महापुरुषके आचरणों तथा वचनोंसे दुनियामात्रको प्रकाश
(ज्ञान) एवं कर्तव्य-कर्म करनेकी प्रेरणा मिलती है, चाहे उसका शरीर रहे अथवा न रहे । जब भगवान् श्रीराम और श्रीकृष्णके
अवतार हुए, तब उनको साक्षात् भगवान् माननेवाले मनुष्य बहुत कम थे,
पर आज उनको भगवान् माननेवाले मनुष्योंकी संख्या ज्यादा है ।
कलियुगके कारण मनुष्योंके आचरणोंमें तो शिथिलता आयी है,
पर उनको भगवान् माननेका भाव बढ़ा है । ऐसे ही महापुरुषोंका शरीर न रहनेके बाद उनके सिद्धान्तोंका, उनके
वचनोंका विशेष प्रचार होता है । जबतक मनुष्यमें अहंभाव रहता है,
तबतक उसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ दुनियाके लिये हितकारी नहीं होती
। अहंभाव मिटनेपर उसकी सम्पूर्ण क्रियाएं दुनियाके लिये हितकारी,
आदर्श हो जाती हैं । हाँ, सकामभावसे कर्म करनेवाले मनुष्योंके कर्म भी दूसरोंके लिये आदर्श
होते हैं,
पर वे कर्म कल्याण करनेवाले नहीं होते । सकामभावसे कर्म करनेवाले
मनुष्योंमें उतनी ही शुद्धि आती है, जितनेसे वे भोगोंको भोग सकें । उनमें वह शुद्धि नहीं आती,
जिससे कल्याण हो जाय । जिन गाँवोंमें,
प्रान्तोंमें सन्त-महापुरुष हुए हैं अथवा गये हैं, वे
गाँव आज भी शुद्ध हैं अर्थात् आज भी वहाँके लोगोंमें आस्तिकता, अच्छे
विचार, अच्छे
आचरण आदि देखनेको मिलते हैं । परन्तु जिन गाँवोंमें न तो कोई सन्त हुआ है और न कोई
सन्त गया ही है, उन गाँवोंके लोग भूत-प्रेतोंकी तरह ही होते हैं ।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! |