।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    आश्विन शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७९, बुधवार

गीतोक्त प्रवृत्ति और आरम्भ



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वर्णाश्रमाभ्यां नियतं हि कर्म कार्यं प्रवृत्तिः कथिता बुधैश्‍च ।

कर्मणि भोगाय नवानि चैव कार्याणि चारम्भ उदीरितो वै ॥

भगवान्‌ने रजोगुणकी वृद्धिके लक्षण बताते हुएप्रवृत्ति’ औरआरम्भ’इन दोनोंका एक साथ प्रयोग किया है‒लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा’ (१४ । १२) । यद्यपि स्थूलदृष्टिसे प्रवृत्ति और कर्मोंका आरम्भ‒ये दोनों एक समान ही दीखते हैं, तथापि इन दोनोंमें बड़ा भारी अन्तर है । अपने-अपने वर्ण, आश्रम, देश, वेश आदिमें रहते हुए प्राप्त परिस्थितिके अनुसार जो कर्तव्य सामने आ जाय, उसको सुचारुरूपसे सांगोपांग कर देनाप्रवृत्ति’ है; और भोग तथा संग्रहको बढ़ानेके उद्देश्यसे नये-नये कर्म प्रारम्भ करनाआरम्भ’ है । अतः प्रवृत्तिको तो निष्कामभावसे निर्लिप्‍ततापूर्वक करना चाहिये, उसका त्याग नहीं करना चाहिये; क्योंकि निष्कामभावपूर्वक प्रवृत्ति करना योगारूढ़ होनेमें कारण है (६ । ३); परन्तु आरम्भका तो त्याग ही कर देना चाहिये; क्योंकि वह भोग और संग्रहकी आसक्‍ति बढ़ाकर पतन करनेवाला है ।

गीता परिस्थितिका परिवर्तन करनेके लिये नहीं कहती, प्रत्युत उसका परिमार्जन करनेके लिये कहती है, जिससे मनुष्य किसी परिस्थितिमें फँसे भी नहीं और वह जिस परिस्थितिमें स्थित है, वही परिस्थिति उसके कल्याणका साधन बन जाय । उसको अपने कल्याणके लिये नये कर्मोंका आरम्भ न करना पड़े और वर्ण, आश्रम, देश, काल, परिस्थिति आदिका परिवर्तन न करना पड़े । कारण कि परमात्मा सब वर्ण, आश्रम, देश, काल, परिस्थिति, घटना आदिमें पूर्णरूपसे व्याप्त हैं ।

प्रवृत्ति (अपने कर्तव्यका पालन) तो सभी वर्ण-आश्रमोंमें होती है और होनी भी चाहिये; क्योंकि अपने-अपने कर्तव्यका पालन किये बिना सृष्टि-चक्रकी मर्यादा चलेगी ही नहीं और अपने कर्तव्यका त्याग करनेसे उद्धार नहीं होगा । अतः जो मनुष्य जिस-किसी वर्ण, आश्रम, परिस्थिति आदिमें स्थित है, उसको निष्कामभावपूर्वक अपने कर्तव्यका पालन जरूर करना चाहिये ।

प्रवृत्ति (अपने कर्तव्यका पालन) तो गुणातीत मनुष्यके द्वारा भी होती है (१४ । २२), पर उसके द्वारा भोग और संग्रहके उद्देश्यसे कर्मोंका आरम्भ नहीं होता । कहीं-कहीं गुणातीत मनुष्यके द्वारा भी नये-नये कर्मोंका आरम्भ देखनेमें आता है; परन्तु उन कर्मोंके आरम्भमें उसके किंचिन्मात्र भी राग-द्वेष नहीं होते । भोग और संग्रहके उद्देश्यसे नये-नये कर्मोंका आरम्भ करनेवाले मनुष्यहमें तो परमात्मप्राप्‍ति ही करनी है’ऐसा एक निश्चय कर ही नहीं सकते (२ । ४४) ।

तात्पर्य है कि अपने वर्ण-आश्रमके अनुसार निष्कामभावपूर्वक की गयी प्रवृत्ति बाधक नहीं है, प्रत्युत मुक्तिमें हेतु है । ऐसे ही अपने स्वार्थ, अभिमान, कामना, आसक्‍तिका त्याग करके केवल प्राणिमात्रके हितके लिये किये गये नये-नये कर्मोंका आरम्भ भी बाधक नहीं है । परन्तु इन आरम्भोंमें साधकको यह विशेष सावधानी रखनी चाहिये कि कर्मोंका आरम्भ करते हुए कहीं हृदयमें पदार्थों और क्रियाओंका महत्त्व अंकित न हो जाय । अगर हृदयमें पदार्थों और क्रियाओंका महत्त्व अंकित हो जायगा तो उन कर्मोंमें साधककी निर्लिप्‍तता नहीं रहेगी अर्थात् वह साधक अपने पास रुपये-पैसे भी न रखता हो, पदार्थोंका संग्रह भी न करता हो तो भी उसके हृदयमें धन, पदार्थ और क्रियाओंका महत्त्व अंकित हो ही जायगा; तथा कार्य करते हुए और न करते हुए भी उन कार्योंका चिन्तन हो ही जायगा ।

भगवान्‌ने कर्मयोगी, ज्ञानयोगी और भक्तियोगी‒तीनों ही साधकोंके लिये प्रवृत्ति (कर्म)-से निर्लिप्त रहनेकी बात कही है । कर्मयोगी साधकमें फलासक्ति न होनेसे वह कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता‒कुर्वन्नपि न लिप्यते’ (५ । ७) । ज्ञानयोगी साधकसम्पूर्ण कर्म प्रकृतिके द्वारा ही हो रहे हैं’ऐसा देखता है और स्वयंको अकर्ता अनुभव करता है (१३ । २९) । इसलिये वह कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता । भक्तियोगी साधक सम्पूर्ण कर्मोंको भगवान्‌के अर्पण कर देता है; अतः वह कर्म करता हुआ भी कर्मोंसे लिप्त नहीं होता ।

भगवान्‌ने कर्मयोगमें कर्मोंके आरम्भमें कामनाओं और संकल्पोंका त्याग तो बताया है, पर कर्मोंके आरम्भका त्याग नहीं बताया; क्योंकि कर्मयोगमें निष्कामभावसे कर्म करना आवश्यक है । कर्मोंको किये बिना कर्मयोगकी सिद्धि ही नहीं हो सकती (६ । ३) । परन्तु ज्ञानयोग और भक्तियोगमें भगवान्‌ने सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भका त्याग बताया है; जैसे‒जो सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भका त्यागी है, वह गुणातीत कहा जाता है (१४ । २५); और जो सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भका त्यागी है, वह भक्त मुझे प्रिय है (१२ । १६) । कारण कि ज्ञानयोगी और भक्तियोगीकी सांसारिक कर्मोंसे उपरति रहती है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !