Listen बाह्यव्यक्तिपदार्थानां
न त्यागस्त्याग उच्यते ।
कामादीनां परित्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥ त्यागके विषयमें प्रायः लोगोंकी ऐसी धारणा बनी हुई है कि जो
घर-परिवार, स्त्री-पुत्र, माता-पिता आदिको छोड़कर साधु-संन्यासी हो जाते हैं,
वे त्यागी हैं । परन्तु वास्तवमें यह त्याग नहीं है;
क्योंकि जबतक अन्तःकरणमें सांसारिक
वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदिमें राग है, प्रियता
है, उनका
महत्त्व है, तबतक बाहरसे घर-परिवार, गृहस्थको
छोड़नेपर भी त्याग नहीं होता । अगर बाहरसे घर-परिवार छोड़नेमात्रसे त्याग हो जाता तो फिर सब मरनेवालोंका कल्याण
हो जाना चाहिये; क्योंकि वे अपने घर-परिवारको और खास अपने कहलानेवाले शरीरको भी छोड़ देते हैं !
परन्तु उनका कल्याण नहीं होता; क्योंकि उन्होंने सांसारिक राग,
आसक्ति, ममता आदिका त्याग नहीं किया, प्रत्युत इनके रहते हुए उनको मरना पड़ा । जो चीज अपनी नहीं होती, उसका भी त्याग नहीं होता और जो अपना स्वरूप है,
उसका भी त्याग नहीं होता; जैसे‒अग्नि अपनी दाहिका और प्रकाशिका शक्तिका त्याग नहीं कर
सकती;
क्योंकि दाहिका और प्रकाशिका शक्ति अग्निका स्वरूप है । फिर
त्याग किसका होता है ? जो
चीज अपनी नहीं है, उसको अपना मान लिया‒इस झूठी मान्यताका, बेईमानीका
ही त्याग होता है । जिसके साथ अपना सम्बन्ध कभी था नहीं, अभी
है नहीं, आगे
होगा नहीं और कभी हो सकता भी नहीं तथा बिना त्याग किये ही जिसका प्रतिक्षण हमारेसे
सम्बन्ध-विच्छेद हो रहा है, उसके साथ माने हुए सम्बन्धका त्याग करना ही वास्तविक
त्याग है । तात्पर्य है कि
वस्तु आदिका अभाव नहीं करना है, प्रत्युत उन वस्तुओंसे जो सम्बन्ध मान रखा है,
उनमें जो आसक्ति, ममता कर रखी है, उसका त्याग करना है । यह त्याग ही वास्तविक
त्याग है, जिससे तत्काल शान्ति मिलती है,‒‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ ( १२ । १२) ।
त्यागके विषयमें मुख्य बात है कि संसारमें केवल संसारके
लिये ही रहना है, अपने लिये नहीं । सात्त्विक त्यागका स्वरूप बताते हुए भगवान् कहते हैं कि केवल
कर्तव्यमात्र करना है, पर उसमें आसक्ति, ममता, फलेच्छा न हो । आसक्ति आदि न होनेसे शरीर-संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद
हो जाता है (१८ । ९) । कर्तव्यका पालन करनेमें कष्ट होता है,
परिश्रम होता है, आराम नहीं मिलता‒ऐसा समझकर अर्थात् शारीरिक कष्टके भयसे कर्तव्यका
त्याग किया जाय तो वह राजस त्याग होता है । राजस त्यागसे शान्ति नहीं मिलती (१८ । ८)
। मोहके कारण, बिना विचार किये कर्तव्यका, क्रियाओंका, पदार्थोंका त्याग किया जाय तो वह तामस त्याग होता है (१८ । ७)
। तामस त्याग मनुष्यको प्रमाद और आलस्यमें लगाता है, जिससे उसकी अधोगति होती है । |