Listen साधक वही होता है, जो त्यागी होता है अर्थात् जो संसारको देता-ही-देता है,
लेता है ही नहीं । वह लेता है,
तो भी देता है और देता है, तो भी देता है अर्थात् वह अन्न-जल,
वस्त्र आदि लेता है तो दुनियाके हितके लिये ही लेता है और अन्न-जल
आदि देता है तो दुनियाके हितके लिये ही देता है । ऐसे ही वह चुपचाप बैठा रहता है,
कुछ भी नहीं करता, तो भी वह देता है; क्योंकि उसके जीनेमात्रसे, दर्शनमात्रसे दुनियाका स्वतः हित होता है । उसका शरीर न रहनेके
बाद भी उसके भावोंसे, उसके आचरणोंको पढ़ने-सुनने-स्मरण करनेसे और उसके रहनेके स्थानसे
दुनियाका हित होता है । तात्पर्य है कि वह ‘सर्वभूतहिते रताः’
(५ । २५; १२ । ४) होता है, उसका जीवन त्यागमय होता है; अतः वह लेता कुछ नहीं और सब कुछ देता है । गीतामें सांख्ययोगको ‘संन्यास’ और कर्मयोगको ‘त्याग’ नामसे भी कहा गया है (१८ । १) । जिसकी
धरोहर है, उसको दे देनेका नाम ‘संन्यास’ है
। शरीर और संसार प्रकृतिकी धरोहर है; अतः उनको प्रकृतिको दे देना अर्थात् उनसे अपना सम्बन्ध
नहीं रखना ‘संन्यास’
है । जो अपना नहीं है, उससे
सम्बन्ध-विच्छेद कर देनेका नाम ‘त्याग’
है । मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदिमें ममताका, अपनेपनका
सम्बन्ध न रखना ‘त्याग’ है; क्योंकि वे सभी संसारके हैं, अपने
नहीं । उन मन,
बुद्धि आदिमें ममता-आसक्ति न रखकर केवल संसारके लिये ही कर्म
करना चाहिये, अपने लिये नहीं । अपने लिये, अपने व्यक्तिगत स्वार्थके लिये कर्म करनेसे मनुष्य बँधता है‒‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः’ (३ ।
९);
और केवल यज्ञके लिये, दूसरोंके लिये, संसारके लिये कर्म करनेसे मनुष्यके सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते
हैं‒‘यज्ञायाचरतः
कर्म समग्रं प्रविलीयते’ (४ । २३) । कर्मोंका आरम्भ न करनेसे भी सिद्धि नहीं मिलती और कर्मोंका स्वरूपसे
त्याग करनेमात्रसे भी सिद्धि नहीं मिलती (३ । ४) । कर्मोंका आरम्भ न करनेसे सिद्धि
नहीं होती; क्योंकि कर्मोंका आरम्भ किये बिना कर्मयोगकी सिद्धि नहीं होती । जो योगपर आरूढ़
होना चाहता है, अपनेमें समताको लाना चाहता है, उसके लिये निष्कामभावसे कर्म करना कारण है (६ । ३) । तात्पर्य
है कि कर्म किये बिना मनुष्य योगपर आरूढ़ नहीं होता, क्योंकि
कर्म करनेसे ही कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धि, फलकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें सम रहनेका अनुभव होता
है । कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेमात्रसे भी सिद्धि नहीं होती;
क्योंकि जबतक कर्तृत्व-अभिमान (करनेका भाव) रहता है,
तबतक सांख्ययोगकी सिद्धि नहीं होती । कर्तृत्व-अभिमानका त्याग
करनेसे ही सिद्धि होती है; क्योंकि वास्तवमें ‘करना’ प्रकृतिमें ही है, अपनेमें नहीं (१३ । ३१) । तात्पर्य है कि सांख्ययोगी कर्तृत्व-अभिमानका
त्याग कर दे, तो फिर कर्मोंका स्वरूपसे त्याग कर देनेपर भी उसके साधनकी सिद्धि हो जाती है ।
परन्तु कर्मयोगमें तो कर्तव्य-कर्म करनेसे ही सिद्धि होती है ।
जिनसे संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ता है,
ऐसे कर्म ‘अकुशल’ कहलाते हैं । कर्मयोगी अकुशल कर्मोंका त्याग तो करता है,
पर द्वेषपूर्वक नहीं । इसमें देखा
जाय तो त्याज्य वस्तु इतनी बन्धनकारक नहीं है, जितना
द्वेष बन्धनकारक है । ऐसे ही कर्मयोगी
कुशल कर्मोंको तो करता है, पर रागपूर्वक नहीं । इसमें भी
देखा जाय तो कुशल कर्मोंको करनेसे जितना लाभ होता है, उससे
अधिक दोष रागपूर्वक कर्म करनेसे होता है । इस तरह कर्म करना ही वास्तवमें त्याग है ( १८ । १०) । |