।। श्रीहरिः ।।

  



  आजकी शुभ तिथि–
    आश्विन शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०७९, शनिवार

गीतामें त्यागका स्वरूप



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जो कर्मफलका आश्रय न लेकर, कर्मफलकी आसक्‍ति-कामना न रखकर, कर्मफलके साथ अपना सम्बन्ध न जोड़कर कर्तव्य-कर्म करता है, वही वास्तवमें त्यागी है । केवल अग्‍निका त्याग करनेवाला या कर्मोंको छोड़नेवाला त्यागी नहीं है (६ । १) । अपने संकल्पको छोड़े बिना, अपने मनकी बात छोड़े बिना मनुष्य कोई-सा भी योगी नहीं हो सकता (६ । २) । जो कर्म एवं कर्मफलकी आसक्‍तिका त्याग कर देता है, वह कर्मोंमें अच्छी तरह प्रवृत्त होनेपर भी वास्तवमें कुछ नहीं करता (४ । २०) । जो कर्म करते हुए भी निर्लिप्त (कामना, ममता, आसक्‍तिसे रहित) रहता है और निर्लिप्त रहते हुए ही कर्म करता है, वही योगी है, बुद्धिमान् है और सम्पूर्ण कर्मोंको करनेवाला (कृतकृत्य) है (४ । १८) । तात्पर्य है कि कर्मयोगी कर्मोंका स्वरूपसे त्याग नहीं करता, प्रत्युत कर्म और कर्मफलकी कामना, ममता, आसक्‍तिका त्याग करता है । भक्तियोगी भी कर्मोंका स्वरूपसे त्याग नहीं करता, प्रत्युत कर्म और कर्मफलको भगवान्‌के अर्पण करता है अर्थात् उनमें कामना, ममता, आसक्‍तिका त्याग करता है (३ । ३०; १२ । ६; १८ । ५७) ।

भक्तमें कुछ भी लेनेकी इच्छा कभी होती ही नहीं । उसमें मुक्तिकी भी इच्छा नहीं होती; क्योंकि उसमें बन्धन है ही नहीं । जहाँ जड़, असत् वस्तुओंको स्वीकार करते हैं, वहीं बन्धन होता है । भक्त असत्‌को कभी स्वीकार करता ही नहीं । वह भगवान्‌से भी कुछ लेता नहीं, प्रत्युत भगवान्‌को भी देता-ही-देता है । उसमें ‘मैं प्रभुसे भी कुछ नहीं चाहता, मुक्ति भी नहीं चाहता’ऐसा अभिमान भी नहीं होता । जैसे भगवान्‌ किसीसे कुछ भी नहीं लेते, केवल देते-ही-देते हैं, फिर भी उनमे कोई कमी नहीं आती, ऐसे ही उस त्यागी भक्तमें भी कोई कमी नहीं आती । भक्त अपने लिये भगवान्‌को भी नहीं चाहता । वह तो स्वयं भगवान्‌के समर्पित होना चाहता है, अपना अलग अस्तित्व नहीं रखना चाहता ।

अद्वैत सिद्धान्तमें तो साधक ब्रह्मरूप हो जाता है, पर भक्त ब्रह्मरूपसे भी विलक्षण हो जाता है; जिसमें भगवान्‌ भी भक्तके भक्त बन जाते हैं, जबकि भक्त नहीं चाहता कि भगवान्‌ मेरे भक्त बनें । ऐसे भक्तोंके बिना भगवान्‌का मन नहीं लगता । भगवान्‌को भी ऐसे भक्तोंकी गरज होती है, चाहना होती है । जैसे, हनुमान्‌जी भगवान्‌से कुछ भी नहीं चाहते; न रहनेके लिये स्थान चाहते हैं, न भोजन चाहते हैं, न कपड़ा चाहते हैं, न सहायता चाहते हैं, न मान चाहते हैं, पर भगवान्‌का काम करनेके लिये वे सदा आतुर रहते हैं‒राम काज करिबे को आतुर’ अतः भगवान्‌ रामजी, सीताजी, लक्ष्मणजी, भरतजी, अयोध्यावासी आदि सब-के-सब हनुमान्‌जीके ऋणी हो जाते हैं ! हनुमान्‌जी त्यागके कारण इतने ऊँचे हो गये कि जहाँ रामजीका मन्दिर होता है, वहाँ हनुमान्‌जीका मन्दिर होता ही है, पर जहाँ रामजीका मन्दिर नहीं होता, वहाँ भी स्वतन्त्ररूपसे हनुमान्‌जीका मन्दिर होता है अर्थात् हनुमान्‌जीके बिना रामजीके मन्दिर नहीं हैं, पर रामजीके बिना हनुमान्‌जीके मन्दिर हैं !

त्यागी भक्तोंको भगवान्‌ अपने माता-पिता, भाई-बन्धु, कुटुम्बी बना लेते हैं और उनके अधीन हो जाते हैं । भक्तसे प्रेम पानेके लिये भगवान्‌ भी लालायित रहते हैं । ब्रजकी गोपियोंमें ऐसा ही प्रेम था । वे अपने लिये कुछ नहीं चाहती थीं, केवल भगवान्‌को ही सुख देना चाहती थीं । उनका अपना कोई अलग व्यक्तित्व नहीं था । उन्होंने भगवान्‌में ही अपने व्यक्तित्वकी आहुति दे दी थी ।

ब्रह्म तो एकरस है । वह न किसीको रस देता है और न रस लेता है । परन्तु भक्त तो भगवान्‌को भी रस देता है और देता ही रहता है; उसका देना समाप्‍त होता ही नहीं । जैसे समुद्रमें मिलनेपर भी गंगाजीका प्रवाह समुद्रमें बहता ही रहता है, भले ही उस प्रवाहका भान न हो, ऐसे ही भक्तका देनेका प्रवाह चलता ही रहता है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !