।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    आश्विन शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०७९, रविवार

गीतामें निर्द्वन्द्व होनेकी महत्ता



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रागद्वेषादयो द्वन्द्वाः  शत्रवः  सन्ति  देहिनाम् ।

तन्मुक्ताः साधकाः शीघ्रं भवेयुः सममाश्रिताः ॥

सांसारिक कर्ममें संसारका सम्बन्ध रहता है और पारमार्थिक साधनमें संसारसे विमुख होकर भगवान्‌के सम्मुख होना पड़ता है; अतः संसारका काम करें या पारमार्थिक साधन करें‒यह द्वन्द्व है । इस द्वन्द्वके निवारणका उपाय यह है कि सांसारिक काम संसारके लिये न करके केवल भगवान्‌के लिये किया जाय । केवल भगवत्प्रीत्यर्थ करनेसे सब-का-सब काम-धन्धा, सब-की-सब क्रियाएँ साधन हो जाती हैं । गीतामें नवें अध्यायके सत्ताईसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने यत्करोषि’ (तू जो कुछ करता है), यदश्‍नासि’ (जो कुछ खाता-पीता है), यज्जुहोषि’ (तू जो कुछ यज्ञ आदि करता है), ‘ददासि यत्’ (तू जो कुछ दान देता है) और यत्तपस्यसि’ (तू जो कुछ तप करता है)‒ये पाँच क्रियाएँ दी हैं । इनमेंसे करोषि’ और अश्‍नासि’ये दो क्रियाएँ सांसारिक हैं तथा ‘जुह्वोषि’, ‘ददासि’ और ‘तपस्यसि’ये तीन क्रियाएँ शास्‍त्रीय हैं, पर इन पाँचों क्रियाओंका सम्बन्ध मदर्पणम्’ (भगवदर्पण)-के साथ है । कारण कि पाँचों क्रियाओंके साथ यत्’ शब्द लगा हुआ है और अर्पण करनेके साथ तत्’ पद लगा हुआ है‒‘तत्कुरुष्व मदर्पणम्’ । अतः ये पाँचों क्रियाएँ केवल भगवत्प्रीत्यर्थ करनी चाहिये । इनमें किंचिन्मात्र भी अपनापन नहीं रहना चाहिये ।

अर्पण दो तरहसे होता है‒(१) क्रिया करके भगवान्‌के अर्पण कर देना और (२) शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि आदि सब भगवान्‌के ही हैं‒ऐसा मान लेना । इन दोनोंमेंसे दूसरा अर्पण श्रेष्ठ है; क्योंकि इसमें सब कुछ भगवान्‌के ही समर्पित है । इस तरह अर्पण करनेवाले भक्तकी लौकिक और शास्त्रीय सभी क्रियाएँ पारमार्थिक हो जाती हैं, भगवत्प्रीत्यर्थ हो जाती हैं । फिर उसमें द्वन्द्व नहीं रहता ।

अनुकूल परिस्थितिमें राजी और प्रतिकूल परिस्थितिमें नाराज होना भी द्वन्द्व है । इस द्वन्द्वसे व्यवहार बिगड़ता है, दुःख होता है और बन्धन दृढ़ होता है । परन्तु जो अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंमें राजी-नाराज नहीं होता, इनमें सम रहता है, उसका व्यवहार ठीक तरहसे होता है, उसको दुःख नहीं होता और उसका कर्मबन्धन कट जाता है (२ । ३८) । जैसे, जो माँ अपने बच्‍चोंमें द्वन्द्व रखती है, पक्षपात या विषमता रखती है, वह माँ होते हुए भी बच्‍चोंको प्रसन्‍न नहीं रख सकती, जिससे कुटुम्बमें कलह होता है, अशान्ति रहती है, मनमुटाव रहता है । द्वन्द्व, पक्षपात न रहनेसे कलह मिट जाता है और कुटुम्बमें शान्ति रहती है ।

द्वन्द्व, विषमता, पक्षपात‒ये जन्म-मरणके, दुःखोंके मूल हैं । इनके सर्वथा मिटनेपर परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍ति हो जाती है । अतः भगवान्‌ने द्वन्द्वमें सम रहनेकोयोग’ कहा है (२ । ४८) ।

हम युद्ध करें या न करें, जीत हमारी होगी या उनकी (२ । ६)‒यह भी द्वन्द्व है; परन्तु यह राग-द्वेषवाला द्वन्द्व नहीं है, प्रत्युत भविष्यकी चिन्तावाला द्वन्द्व है । इसी द्वन्द्वसे मोहित हुए अर्जुन भगवान्‌के शरण होकर उनसे अपना कर्तव्य पूछते हैं (२ । ७) । उत्तरमें भगवान्‌ कहते हैं‒अगर तू युद्धमें मारा जायगा तो स्वर्गको प्राप्त होगा और युद्धमें जीत जायगा तो पृथ्वीका राज्य भोगेगा (२ । ३७) । अतः जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखमें सम होकर युद्ध कर, फिर तुझे पाप नहीं लगेगा (२ । ३८) । कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, कर्मके फलमें नहीं (२ । ४७) । तू सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर कर्म कर (२ । ४८); क्योंकि समबुद्धिसे युक्त मनुष्य इस जीवित-अवस्थामें ही पाप-पुण्यसे रहित हो जाता है (२ । ५०) ।

ये हमारे श्रोता हैं और ये हमारे श्रोता नहीं हैं, ये हमारे अनुयायी हैं और ये हमारे अनुयायी नहीं हैं, ये हमारे शिष्य हैं और ये हमारे शिष्य नहीं हैं; अतः जो हमारे श्रोता, अनुयायी और शिष्य हैं, उनको तो हम साधनकी बात बतायेंगे और जो हमारे श्रोता आदि नहीं हैं, उनको हम साधनकी बात नहीं बतायेंगे‒इस तरह वक्ताके भीतर द्वन्द्व, विषमता, पक्षपात रहेगा तो उसमें राग-द्वेष होंगे । जबतक राग-द्वेष होते हैं, तबतक कल्याण नहीं होता; क्योंकि कल्याणके मार्गमें राग और द्वेष‒ये दोनों शत्रु हैं (३ । ३४) ।

कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒तीनों ही योग-मार्गोंमें साधकके लिये निर्द्वन्द्व होना बहुत आवश्यक है । अतः भगवान्‌ने गीतामें जगह-जगह निर्द्वन्द्व होनेके लिये विशेष जोर दिया है; जैसे‒निर्द्वन्द्व होनेपर साधक कर्म करता हुआ भी बँधता नहीं (४ । २२), द्वन्द्वोंसे मनुष्य संसारमें बँध जाता है (७ । २७); परन्तु निर्द्वन्द्व होनेसे मनुष्य सुखपूर्वक संसारसे मुक्‍त हो जाता है (५ । ३); निर्द्वन्द्व होनेपर ही साधक दृढ़वती होकर भगवान्‌का भजन कर सकते हैं (७ । २८) । तात्पर्य है कि साधककी साधना निर्द्वन्द्व होनेसे ही दृढ़ होती है । इसीलिये भगवान्‌ अर्जुनको निर्द्वन्द्व होनेकी आज्ञा देते हैं (२ । ४५) ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !