Listen प्रकृतौ
प्रकृतेः कार्ये भवन्ति विविधाः क्रियाः । शरीरवाङ्मनोभिस्ताः
प्रकटन्त्यखिलाः सदा ॥ आत्मनि
नैव
कर्तृत्वं भोक्तृत्वं नैव कर्हिचित्
। प्रकृतेरेव सम्बन्धान्मन्यते द्वे तु पूरुषः
॥ एक परमात्मा हैं और एक परमात्माकी शक्ति प्रकृति है । उस प्रकृतिमें
ही मात्र परिवर्तन होता है, और उस प्रकृतिका जो आधार, प्रकाशक, आश्रय है, उसमें कभी किंचिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता । जिस प्रकृतिमें
परिवर्तन होता है, उसीको गीताने कई तरहसे बताया है;
जैसे‒सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिके द्वारा ही होती हैं (१३ ।
२९);
गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं अर्थात् सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिके गुणोंके द्वारा
ही होती हैं (३ । २७-२८; १४ । २३); इन्द्रियाँ ही इन्द्रियोंके विषयोंमें बरत रही हैं अर्थात् सम्पूर्ण
क्रियाएँ इन्द्रियोंके द्वारा ही होती हैं (५ । ९) । इन्द्रियोंके द्वारा क्रियाएँ
होनेकी बातको भी गीताने कई तरहसे बताया है‒कहीं शरीर,
इन्द्रियाँ, मन और बुद्धिके द्वारा क्रियाओंका होना बताया है (५ । ११), कहीं
शरीर,
कर्ता, करण, चेष्टा और दैव (संस्कार)-को क्रियाओंके होनेमें हेतु बताया है
(१८ । १४), कहीं शरीर, वाणी और मनको क्रियाओंके प्रकट होनेके द्वार बताया है (१८ ।
१५) और कहीं क्रियाओंके होनेमें स्वभावको हेतु बताया है (५ । १४) । वास्तवमें प्रकृति,
गुण और इन्द्रियाँ‒ये तीनों तत्त्वसे एक ही हैं;
क्योंकि प्रकृति मूल है, प्रकृतिका कार्य गुण है और गुणोंका कार्य इन्द्रियाँ हैं । इससे
यही सिद्ध हुआ कि कर्तृत्व अर्थात् मात्र करना प्रकृतिमें ही है,
परमात्माके अंश जीवात्मा (पुरुष)-में नहीं है;
क्योंकि कार्य और करणके द्वारा होनेवाली क्रियाओंको उत्पन्न
करनेमें प्रकृतिको हेतु बताया गया है‒‘कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते’ (१३ ।
२०) । भोक्तृत्वमें पुरुषको हेतु बताया गया है‒‘पुरुषः
सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते’ (१३ । २०) । परन्तु वास्तवमें प्रकृतिस्थ पुरुष ही हेतु बनता है‒‘पुरुषः
प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते’ (१३ । २१) अर्थात् प्रकृतिमें स्थित होनेसे ही पुरुष भोक्तृत्वमें हेतु बनता है । यदि पुरुष
(स्वयं) प्रकृतिमें स्थित न होकर अपने स्वरूपमें ही स्थित रहे तो वह भोक्ता नहीं बन
सकता । अतः भगवान् कहते हैं कि ‘यह पुरुष स्वयं अनादि और निर्गुण होनेसे अविनाशी परमात्मस्वरूप
ही है;
यह शरीरमें रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है’
(१३ । ३१) । यहाँ
‘न करता है’‒इसका अर्थ है कि इसमें कर्तृत्व नहीं है,
और ‘न लिप्त होता है’‒इसका अर्थ है कि इसमें भोक्तृत्व नहीं है ।
जब स्वयं कर्मेन्दियों (शरीर आदि)-के साथ मिल जाता है,
तब यह कर्ता बन जाता है और जब ज्ञानेन्द्रियों (मन,
वाणी आदि)-के साथ मिल जाता है,
तब यह भोक्ता बन जाता है । पर इसका अर्थ यह नहीं है कि कर्मेन्द्रियों
साथ मिलनेके समय यह भोक्ता नहीं है और ज्ञानेन्द्रियोंके साथ मिलनेके समय यह कर्ता
नहीं है,
प्रत्युत यह कर्मेन्द्रियोंकी प्रधानतासे अपनेको कर्ता और ज्ञानेन्द्रियोंकी
प्रधानतासे अपनेको भोक्ता मान लेता है । जबतक बोध (तत्त्वज्ञान) नहीं हो जाता,
तबतक यह माना हुआ कर्तृत्व-भोक्तृत्व रहता है । |