।। श्रीहरिः ।।



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    आश्विन शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

गीतामें कर्तृत्व-भोक्तत्वका निषेध



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भोक्ता, भोग्य वस्तु और भोगरूपी क्रिया‒इन तीनोंमें कारणरूप प्रकृतिकी एकता रहती है । भोक्तामें जो प्रकृतिका अंश है, वही भोग्य वस्तु और भोगरूपी क्रियाके साथ एक होता है । उस प्रकृतिके अंशके साथ तादात्म्य कर लेनेसे, उसके साथ घुल-मिल जानेसे यह पुरुष (चेतन) भोक्ता बनता है । भोक्ता बननेपर भी इसका भोगोंमें जो आकर्षण होता है, वह आकर्षण वास्तवमें प्रकृतिके अंशका ही होता है; परन्तु शरीरके साथ तादात्म्य होनेके कारण यह पुरुष प्रकृतिके अंशके आकर्षणको अपना आकर्षण मान लेता है । इसमें अगर यह सावधान रहे अर्थात् यह खिंचाव केवल जड़ अंशका ही है, स्वयंका नहीं‒ऐसा विवेकपूर्वक अनुभव कर ले तो यह परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाता है । अतः भगवान्‌ कहते हैं कि विचारकुशल मनुष्य जब गुणोंके सिवाय अन्यको कर्ता नहीं देखता और आपने-आपको गुणोंसे पर अनुभव करता है, तब यह मेरे स्वरूपको प्राप्त हो जाता है (१४ । १९) । प्राप्त क्यों हो जाता है ? कारण कि यह स्वयं स्वतः ही गुणोंसे निर्लिप्त है (१३ । ३१) । तात्पर्य यह हुआ कि पुरुषने जिस जड़-अंशके साथ तादात्म्य करके अपनेको भोक्ता माना है, उसी जड़-अंशमें भोगरूपी क्रिया भी है । अतः भोक्ता भी जड़-अंश ही हुआ; भोगरूपी क्रिया भी जड़-अंशमें ही हुई, भोगकी सामर्थ्य भी जड़-अंशमें ही रही और भोग्य पदार्थ भी जड़ प्रकृतिका ही कार्य हुआ । इसलिये भोक्ता भोगरूपी क्रिया, भोगकी सामर्थ्य और भोग्य पदार्थ‒ये सब-के-सब प्रकृतिमें ही हैं (१३ । ३०) । भोगके समय पुरुषमें कोई विकार भी नहीं होता (१३ । ३१) परन्तु तादात्म्यके कारण पुरुष अपनेमें अहंभावका आरोप कर लेता है अर्थात्  ‘मै सुखी हूँ’, और मैं दुःखी हूँ’‒ऐसा मान लेता है; और इसी कारणसे अर्थात् अपनेमें जड़-अंशको माननेसे भोक्ताका भोगोंमें आकर्षण होता है, अन्यथा स्वयं चेतनका भोगोंमें आकर्षण हो ही नहीं सकता ।

भगवान्‌ने गुणोंको कर्ता कहा है, तो उस कर्तामें भोक्तृत्व भी साथमें रहता है; क्योंकि भोग भी क्रियाजन्य होता है (५ । ८-९) । क्रियाके बिना भोग नहीं होता । इससे भी यही सिद्ध होता है कि स्वयंमें कर्तृत्व और भोक्तृत्व‒दोनों ही नहीं हैं ।

कर्तृत्वमें ही भोक्तृत्व होता है अर्थात् जो कर्ता होता है, वही भोक्ता बनता है । कारण कि स्वयं किसी प्रयोजनको लेकर, फलकी इच्छाको लेकर ही कर्म करनेमें प्रवृत्त होता है अर्थात् भोक्तृत्व भावसे ही यह कर्ता कहलाता है । अतः कर्तृत्व और भोक्तृत्व दो चीजें नहीं हैं, प्रस्तुत दोनों एक ही हैं[*] । हाँ, यदि सूक्ष्मदृष्टिसे देखा जाय तो कर्तृत्वमें स्थूलता है और भोक्तृत्वमें सूक्ष्मता है, पर तात्त्विक दृष्टिसे दोनों एक ही हैं; क्योंकि दोनों ही प्रकृतिके सम्बन्धसे होते हैं । अतः कर्तृत्व मिटनेसे भोक्तृत्व भी मिट जाता है और भोक्तृत्व मिटनेसे कर्तृत्व भी मिट जाता है ।



[*] अपनेमें कर्तृत्व माने बिना भी क्रिया तो होती है, पर अपनेको सुखी-दुःखी माने बिना भोक्तृत्व सिद्ध नहीं होता ।