Listen शंका‒गीतामें
आया है कि साधक ‘मैं
कुछ भी नहीं करता हूँ’‒ऐसा माने (५ । ८) जिसका अहंकृतभाव नहीं है (१८ । १७) आदि-आदि
। अगर स्वयंमें कर्तृत्व नहीं होता तो फिर ‘मैं कुछ भी नहीं
करता हूँ; जिसका अहंकृतभाव नहीं है’‒ऐसा
कहने (स्वयंमें कर्तृत्वका निषेध करने) की जरूरत ही नहीं थी । कारण कि किसी चीजकी प्राप्ति
होनेपर ही उसका निषेध किया जाता है‒‘प्राप्तौ सत्यां निषेधः’ ।
जहाँ प्राप्ति है ही नहीं, वहाँ
निषेध करना बनता ही नहीं । अतः उपर्युक्त वाक्योंमें कर्तृत्वका निषेध करनेसे सिद्ध
होता है कि स्वयंमें कर्तृत्व रहता है, तो
फिर यह कैसे मानें कि कर्तृत्व प्रकृतिमें ही है, स्वयं-(चेतन-)
में नहीं ? समाधान‒वास्तवमें मात्र क्रियाएँ प्रकृतिमें ही होती हैं,
पर ‘मैं कर्म करता हूँ’‒यह कर्तृत्वकी मान्यता स्वयंमें रहती है
अर्थात् स्वयं अपनेमें कर्तृत्व मान लेता है; क्योंकि मानना अथवा न मानना चेतन-(स्वयं-) में ही होता है जड़
प्रकृति-(शरीर-) में नहीं । स्वयं अपनेमें कर्तृत्वकी मान्यता (कर्तृत्वभाव) करता है,
तभी वह भोक्तापनमें हेतु बनता है । अगर स्वयंमें कर्तृत्वकी मान्यता नहीं हो तो
‘पुरुष भोक्तृत्वमें हेतु बनता
है’
(१३ । २०)‒यह कहना ही नहीं बनेगा
। जबतक स्वयंका प्रकृतिके साथ सम्बन्ध रहता है, तबतक कर्तृत्व और भोक्तृत्वकी मान्यता स्वयंमें ही रहती है ।
अतः कर्तृत्व-भोक्तृत्वकी मान्यता प्रकृतिके सम्बन्धसे ही स्वयंमें रहती है (३ । २७)
। अगर प्रकृतिसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाय तो कर्तृत्व-भोक्तृत्वकी मान्यता मिट
जाती है;
फिर स्वयं शरीरमें रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है
(१३ । ३१) ।
भगवान्ने गीतामें इस जीवात्माको परा (चेतन) प्रकृति और संसारको
अपरा (जड़) प्रकृति कहा है । इन परा और अपराके संयोगसे ही सम्पूर्ण प्राणी पैदा होते हैं
। वे प्राणी चाहे मनुष्यलोकके हों, चाहे स्वर्गलोकके हों, चाहे नरकोंके हों, चाहे चौरासी लाख योनियोंके हों,
चाहे भूत-पिशाच आदि योनियोंके हों,
वे सभी परा-अपराके सम्बन्धसे ही पैदा होते हैं (७ । ६) । इसी
बातको तेरहवें अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें कहा है कि सम्पूर्ण स्थावर-जंगम प्राणी
क्षेत्रज्ञ और क्षेत्रके संयोगसे ही पैदा होते हैं । संयोग करनेकी, सम्बन्धको माननेकी योग्यता, सामर्थ्य चेतनमें ही है, जड़ प्रकृतिमें नहीं । सम्बन्धको स्वीकार करने अथवा न करनेमें,
मानने अथवा न माननेमें यह स्वयं सर्वथा स्वतन्त्र है । जब यह
अविवेकके कारण प्रकृति और उसके कार्य शरीरके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है,
तब इसको अपनेमें कमीका अनुभव होने लगता है । जैसे मनुष्य विवाह
कर लेता है, स्त्रीके साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है तो उसको स्त्रीके कपड़े,
गहने आदिकी कमी अपनी कमी मालूम देने लगती है,
ऐसे ही यह स्वयं शरीरके साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है तो इसको शरीरकी
कमी अपनी कमी मालूम देने लगती है । उस कमीकी पूर्तिके लिये यह शरीर,
इन्द्रियोंके द्वारा कामना-आसक्तिपूर्वक जो कुछ चेष्टा करता
है,
उसमें उसका कर्तृत्वभाव हो जाता है,
अर्थात् उसमें ‘मैं कर्म करता हूँ’‒ऐसा भाव आ जाता है । परन्तु उसमें कर्तृत्वभाव आनेपर भी क्रिया,
पदार्थ, वस्तु आदिके रूपमें प्रकृति ही परिणत होती है । तात्पर्य है
कि क्रियामात्र प्रकृतिसे और प्रकृतिमें ही होती है ( १३ । ३०) । स्वयंमें कभी कोई
क्रिया होती ही नहीं; क्योंकि वह सर्वथा असङ्ग, निर्लिप्त है । उसकी असङ्गता कभी मिटती ही नहीं,
ज्यों-कीं-त्यों ही रहती है ( १३ । ३१) । |