Listen प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जोड़नेके कारण अपनेमें कमीका अनुभव होनेपर यह पुरुष जो कुछ चेष्टा करता है, उस चेष्टा अर्थात् कार्यकी पूर्ति-अपूर्ति, सिद्धि-असिद्धि और फलकी प्राप्ति-अप्राप्ति होती है । जब कार्यकी पूर्ति, सिद्धि और फलकी प्राप्ति होती है, तब यह सुखका अनुभव करता है और अपनेको सुखी मानने लगता है । परन्तु जब कार्यकी अपूर्ति, असिद्धि और फलकी अप्राप्ति होती है, तब यह दुःखका अनुभव करता है और अपनेको दुःखी मानने लगता है । इस प्रकार सुख-दुःखका अनुभव करनेसे, अपनेको सुखी और दुःखी माननेसे यह पुरुष सुख-दुःखका भोक्ता बन जाता है (१३ । २१) । भोक्ता बननेपर अर्थात् अपनको भोक्ता मान लेनेपर भी भोगरूपी क्रिया तो प्रकृतिमें ही होती है, स्वयंमें नहीं । कर्तृत्व और भोक्तृत्वमें जो क्रिया-भाग है, वह प्रकृतिका ही है; क्योंकि करना और भोगना-रूप क्रिया प्रकृतिमें ही होती है । परन्तु प्रकृतिके साथ, शरीरके साथ तादात्म्यके कारण पुरुष अपनेमें कर्तृत्व और भोक्तृत्व-भाव स्वीकार कर लेता है, और इसीसे यह अपनेमें प्राकृत पदार्थोंका आकर्षण अनुभव करता है । जब विवेकके द्वारा प्रकृतिसे अपने अलगावका अनुभव हो जाता है, तब पुरुषमें कर्तृत्व-भोक्तृत्वभाव नहीं रहता । फिर यह कभी सुखी-दुःखी नहीं होता; क्योंकि शुद्ध स्वरूपमें सुख-दुःख है ही नहीं । अगर स्वरूपमें सुख होता तो फिर यह कभी दुःखी नहीं होता और दुःख होता तो फिर यह कभी सुखी नहीं होता । सुख और दुःख‒ये दोनों आते-जाते हैं, पर स्वयं ज्यों-का-त्यों रहता है । सुख और दुःखकी अवस्थाएँ बदलती है, पर स्वयं नहीं बदलता । कर्तृत्व-भोक्तृत्व भाव भी बदलता है, पर स्वयं कभी नहीं बदलता । स्वयं समानरूपसे दोनोंको प्रकाशित करता है । यह एक सच्ची और सर्वानुभूत बात है कि जो पढ़ा-लिखा होता है, उसकी ही पढ़ाई बाकी रहती है अर्थात् उसको ही पढ़ाईकी कमीका अनुभव होता है । परन्तु जो सर्वथा अपढ़ है, उसको पढ़ाईकी कमीका अनुभव नहीं होता । जो धन, मान, प्रतिष्ठा आदिके साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है, वही धन, मान आदिकी कमीका अनुभव करता है । परन्तु जो धन, मान आदिको स्वीकार नहीं करता, उसको उनकी कमीका अनुभव नहीं होता । ऐसे ही यह स्वयं जब शरीर, परिवार, धन, मान, प्रतिष्ठा आदिके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब इसको अपनेमें कमीका अनुभव होने लगता है । यह जितना-जितना शरीरादिके साथ अपना सम्बन्ध मानता चला जाता है, उतना-उतना ही यह अपनेमें अभावका अनुभव करता चला जाता है । उस अभावकी पूर्तिके लिये यह कर्म करता है‒यह कर्तृत्व है, और उन कर्मोंकी पूर्ति-अपूर्तिमें सुखी-दुःखी होता है‒यह भोक्तृत्व है । इसका तात्पर्य है कि कर्तृत्व और भोक्तृत्व न स्वयं (चेतन)-में हैं और न जड़ प्रकृतिमें हैं । चेतन प्रकृति (शरीर)-के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, इस मान्यतामें ही कर्तृत्व-भोक्तृत्व रहते हैं (५ । १४) । |