Listen शरीरके साथ अपना सम्बन्ध माननेमें क्या कारण है ? इसमें मूल कारण अज्ञान ही है । अज्ञान नाम ज्ञानके अभावका नहीं है, प्रत्युत अधूरे ज्ञानका नाम ही अज्ञान है । तात्पर्य है कि अपनी जानकारीको महत्त्व न देना ही अज्ञान है । जैसे, मनुष्य जानता है कि मैं शरीर नहीं हूँ और शरीर मेरा नहीं है, फिर भी वह शरीरको ‘मैं’ और ‘मेरा’ मान लेता है; शरीरके साथ सम्बन्ध न होते हुए भी शरीरके साथ सम्बन्ध मान लेता है‒यही अज्ञान है । जो चीज उत्पन्न होती है, वह नष्ट होती ही है‒यह नियम है; अतः शरीर उत्पन्न हुआ है तो यह मरेगा ही‒इस बातको सब जानते है, फिर भी मेरा शरीर बना रहे मरे नहीं‒ऐसी इच्छा होना ही अज्ञान है । यह अज्ञान कबसे हुआ ? जबसे पुरुषने अपने विवेकका अनादर किया, विवेकको महत्त्व नहीं दिया, तबसे अज्ञान हुआ है । तात्पर्य है कि मात्र क्रियाएं प्रकृतिमें ही होती है, फिर भी पुरुषने उनको अपनेमें मान लिया, तभीसे अज्ञान हुआ है । कर्तृत्व-भोक्तृत्व अपनेमें नहीं हैं, माने हुए हैं, तभी ये मिटते हैं । अगर कर्तृत्व-भोक्तृत्व स्वयंमें होते तो फिर ये कभी मिटते नहीं-‘नाभावो विद्यते सतः’(२ । १६) । मिटनेवाली चीज वही होती है, जो वास्तवमें नहीं होती । तेरहवें अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें पुरुषको ‘प्रकृतिस्थ’ और इकतीसवें श्लोकमें पुरुषको ‘शरीरस्थ’ कहा गया है । इसका तात्पर्य है कि जिसने एक शरीरके साथ अपना सम्बन्ध (तादात्म्य) मान लिया है, उसका सम्पूर्ण प्रकृति और उसके कार्य संसारके साथ सम्बन्ध हो गया । जैसे मनुष्यका किसी एक स्त्रीके साथ सम्बन्ध (विवाह) हो जाता है तो उसका उस स्त्रीके सम्पूर्ण परिवारके साथ सम्बन्ध हो जाता है, ऐसे ही पुरुष एक शरीरके साथ सम्बन्ध मान लेता है तो उसका मात्र प्रकृतिके साथ, मात्र शरीरोंके साथ सम्बन्ध हो जाता है । प्रकृतिके साथ सम्बन्ध माननेसे ही वह गुणोंका सुख-दुःखोंका भोक्ता बनता है (१३ । २०) अर्थात् सुखी-दुःखी होता है । वास्तविक स्वरूपमें सुख-दुःख नहीं हैं । यह सुख-दुःखसे अलग है, आनन्दस्वरूप है । परन्तु जब यह प्रकृतिके साथ अपनी एकता मान लेता है, तब यह अनुकूल परिस्थिति आनेपर ‘मै सुखी हूँ’ और प्रतिकूल परिस्थितिके आनेपर ‘मैं दुःखी हूँ’‒ऐसा मान लेता है[*] । जब यह प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद करके अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है, तब यह सुख-दुःखमें सम हो जाता है । फिर जो एकदेशीय अहम् है, जिसको ‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ पदोंसे (३ । २७) कहा है, वह मिट जाता है और उसकी बुद्धि साम्यावस्थामें स्थित हो जाती है, मन निर्विकल्प हो जाता है, इन्द्रियाँ निर्विषय हो जाती हैं अर्थात् उनमें राग-द्वेष नहीं रहते तथा स्थूलशरीरमें मैं-मेरापन मिट जाता है । ऐसे महापुरुष संसारको जीत लेते हैं अर्थात् सांसारिक संयोग-वियोगसे ऊँचे उठ जाते हैं; क्योंकि वे अपने स्वरूपमें स्थित हो गये हैं । वास्तवमें वे स्वरूपमें स्थित हो नहीं गये, प्रत्युत वे तो स्वरूपमें सदा ही स्थित थे । जिस समय वे शरीरमें अपनी स्थिति मानते थे, उस समय भी वे शरीरमें स्थित नहीं थे, उस समय भी वे कर्तृत्व-भोक्तृत्वसे रहित थे‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (१३ । ३१) । तात्पर्य है कि स्वयंमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व है ही नहीं । अगर वास्तवमें यह कर्ता-भोक्ता होता तो भगवान् ‘न करोति न लिप्यते’ कैसे कहते ? अगर इसकी तीनों गुणोंके साथ एकता होती तो भगवान् ‘निस्त्रैगुण्यो भव’ (२ । ४५) कहकर तीनों गुणोंसे रहित होनेकी आज्ञा क्यों देते ? निषेध उसीका होता है, जो वास्तवमें नहीं होता । ज्ञानयोगी
साधक
‘प्रकृतिजन्य गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं’‒ऐसा
जानकर अपनेको उन क्रियाओंका कर्ता नहीं मानता (५ । ८-९; १३ ।
२९) । अतः उसके कर्तृत्व-भोक्तृत्व मिट जाते हैं । कर्मयोगी
साधक केवल यज्ञ-परम्परा अर्थात् कर्तव्य-कर्मकी परम्परा सुरक्षित रखनेके लिये ही कर्म
करता है । केवल दूसरोंके हितके लिये ही कर्तव्य-कर्म करनेसे उसका कर्तृत्व कर्तव्य-कर्मके
साथ ही दूसरोंकी सेवामें प्रवाहित हो जाता है । फिर केवल सेवा रह जाती है,
सेवक नहीं रहता । अतः उसमें कर्तृत्व नहीं रहता । ऐसे ही कर्मयोगी फलेच्छा,
कामना, आसक्तिसे रहित होकर तत्परतापूर्वक अपने
कर्तव्यका पालन करता है (२ । ५१) । फलेच्छा न रहनेसे उसमें भोक्तृत्व भी नहीं रहता
। तात्पर्य है कि दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे कर्तृत्व
और फलेच्छा न रहनेसे भोक्तृत्व मिट जाता है (४ । २०) । भक्तियोगी
साधक शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसहित अपने-आपको भगवान्के अर्पित कर देता है (१८ । ६६)
। उसके द्वारा जो कुछ होता है, वह सब भगवान्का
किया-कराया ही होता है; अतः उसमें कर्तृत्व नहीं रहता । वह वस्तु, व्यक्ति आदि मात्र संसारका भोक्ता भगवान्को ही मानता है (५ । २९);
अतः उसमें भोक्तृत्व भी नहीं रहता ।
नारायण
! नारायण ! नारायण ! नारायण ! [*] प्रकृतिका स्वरूप है‒क्रिया और पदार्थ अर्थात् प्रकृति ही क्रिया और पदार्थरूपसे प्रकट होती है । क्रिया और पदार्थके सम्बन्धसे जो सुख होता है, वह ‘भोग’ है, योग नहीं । परन्तु परमात्माके सम्बन्धसे जो सुख होता है, वह ‘योग’ है, भोग नहीं; अतः इस सुखमें भोक्ता नहीं रहता । |