।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    आश्विन शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०७९, शनिवार

गीतामें अहंता-ममताका त्याग



Listen



अहंताममतात्यागः कथितो हरिणा स्वयम् ।

कर्मयोगे   ज्ञानयोगे  भक्तियोगे   समानतः ॥

गीतामें भगवान्‌ने कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒इन तीनों ही मार्गोंमें अहंता-ममताके त्यागकी बात कही है; जैसेकर्मयोगमें निर्ममो निरहंकारः’ (२ । ७१) पदोंसे, ज्ञानयोगमें अहंकारं......विमुच्य निर्ममः’ (१८ । ५३) पदोंसे और भक्तियोगमें निर्ममो निरहंकारः’ (१२ । १३) पदोंसे साधकका अहंता-ममतासे रहित होना बताय गया है । परन्तु तीनों योगमार्गोंमें अहंता-ममताका त्याग करनेके प्रकारमें अन्तर है; जैसे‒

कर्मयोगमें पहले कामनाका त्याग होता है; क्योंकि कर्मयोगी आरम्भमें ही निष्कामभावसे कर्म करना शुरू कर देता है । जब कामनाका सर्वथा त्याग हो जाता है, तो फिर स्पृहा, ममता और अहंताका भी स्वतः त्याग हो जाता है । दूसरे अध्यायके इकहत्तरवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कर्मयोगीमें पहले कामनाओंका त्याग बताया है, फिर स्पृहा, ममता और अहंताका त्याग बताया है ।

ज्ञानयोगमें पहले अहंताका त्याग होता है । जब मूल अहंताका ही त्याग हो जाता है, तो फिर ममता, स्पृहा और कामनाका भी स्वाभाविक ही त्याग हो जाता है । अठारहवें अध्यायके सत्रहवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने ज्ञानयोगीमें पहले अहंताका त्याग बताया है, फिर लिप्तता (फलेच्छा)-का त्याग बताया है ।

भक्तियोगमें भगवान्‌की शरण होनेपरमैं भगवान्‌का हूँ और भगवान्‌ मेरे हैं’इस तरह अहंता बदल जाती है, फिर भगवान्‌की कृपासे भक्तियोगी अहंताममता, स्पृहा और कामनासे रहित हो जाता है । अठारहवें अध्यायके छाछठवें श्‍लोकमें भगवान्‌ कहते हैं कि तू सब धर्मोंका आश्रय छोड़कर केवल एक मेरी शरणमें आ जा; मैं तुझे सम्पूर्ण पापों (अहंता-ममता आदि दोषों)-से मुक्‍त कर दूँगा ।

तात्पर्य यह है कि प्रत्येक मनुष्य अहंता-ममतासे रहित हो सकता है; क्योंकि अहंता-ममता इसके स्वरूप नहीं हैं । अगर अहंता-ममता इसके स्वरूप होते तो इनका कभी त्याग नहीं होता और भगवान्‌ भी इनसे रहित होनेकी बात न कहते ।

यह स्वयं (जीवात्मा) जब शरीरके साथयह शरीर मैं हूँ’ ऐसा अभिन्‍नताका सम्बन्ध मान लेता है, तबअहंता’ पैदा हो जाती है और जब शरीरके साथयह शरीर मेरा है’, ऐसा भिन्‍नताका सम्बन्ध मान लेता है, तबममता’ पैदा हो जाती है । इस प्रकार अहंता और ममता‒ये दोनों ही मान्यताएँ हैं, स्वरूप नहीं है‒इस बातको विवेकपूर्वक दृढ़तासे मानकर साधक सुगमतापूर्वक इन दोनोंसे रहित हो सकता है ।