Listen साधकको
शरीर आदिमें मानी हुई अहंता-ममताका ही त्याग करना है;
क्योंकि वह उसका स्वरूप नहीं है । भगवान्ने स्वरूपका वर्णन करते हुए
कहा है कि ‘यह पुरुष स्वयं अनादि और निर्गुण होनेसे परमात्मस्वरूप
ही है, और यह शरीरमें रहता हुआ भी न करता है तथा न लिप्त होता
है’ (१३ । ३१) । परन्तु यह अपनेमें ‘मैं
करता हूँ और मैं चाहता हूँ’‒ऐसा मान लेता है । इन्हीं दोनों मान्यताओंका निषेध करते
हुए भगवान्ने कहा है‒‘जिसका अहंकृतभाव नहीं है और जिसकी बुद्धि
लिप्त नहीं होती, वह अगर सम्पूर्ण प्राणियोंको मार दे,
तो भी वह न मारता है और न लिप्त होता है (१८ ।
१७) । कारण कि वास्तवमें इसके स्वरूपमें कर्तृत्वाभिमान और लिप्तता है ही नहीं । रामचरितमानसमें
जहाँ लक्ष्मणजीने मायाका स्वरूप पूछा, वहाँ उत्तरमें भगवान्ने कहा‒ मैं अरु मोर
तोर
तैं माया । जेहिं बस
कीन्हे जीव निकाया ॥ (३ । १५ । १) तात्पर्य
है कि अहंता (मैं-पन) और ममता (मेरा-पन)‒यह मायाका स्वरूप है,
अपना स्वरूप नहीं । परन्तु यह जीव इस मायाके वशमे हो गया है,
बँध गया है । इस बन्धनसे ही मुक्त होना है । सन्तोंकी वाणीमें भी आया
है‒ मैं मेरेकी जेवरी गल बँध्यो संसार । दास कबीरा क्यों बँधे, जाके
राम अधार ॥ शरीर
आदिमें अहंता-ममता करनेसे स्वयं पराधीन हो जाता है और इसमें परिच्छिन्नता,
मलिनता आ जाती है । अहंता-ममता छूटनेसे स्वतः ही स्वरूपका बोध हो जाता
है । अहंता-ममताको छोड़नेसे पहले ही साधक यह दृढ़ विचार कर ले कि अहंता-ममता अपना स्वरूप
नहीं है । त्याग उसीका होता है, जो अपना स्वरूप नहीं है । जो
अपना स्वरूप होता है, उसका कभी त्याग नहीं होता । व्यवहारमें भी देखनेमें आता है कि मनुष्य जितनी अहंता-ममता करता है, उतना ही वह संसारमें आदर नहीं पाता; और जितनी अहंता-ममता छोड़ता है, उतना ही वह संसारमें आदर
पाता है, स्थान पाता है । साधकका भी यह अनुभव होता है कि वह साधनमें
ज्यों-ज्यों ऊँचा बढ़ता है, त्यों-ही-त्यों अहंता-ममता छूटती जाती
है । अहंता-ममताके सर्वथा मिटनेपर साधक जीवन्मुक्त हो जाता है ।
अहंता-ममतासे
मनुष्य महान् अपवित्र हो जाता है और इनके छूटनेसे महान् पवित्र हो जाता है । जैसे,
कोई अहंता-ममतावाला सामान्य व्यक्ति मर जाता है तो लोग उसके कपड़े आदिको
छूना भी नहीं चाहते । परन्तु जिसकी अहंता-ममता मिट गयी है, ऐसे
सन्त-महापुरुषका शरीर छूनेपर लोग उसके कपड़े आदि वस्तुओंको आदरसहित रखना चाहते है;
क्योंकि अहंता-ममता न रहनेसे उसकी वस्तुएँ महान पवित्र हो जाती हैं ।
केवल पवित्र ही नहीं होती, प्रत्युत औरोंको भी पवित्र करनेवाली
हो जाती हैं । दूसरी बात जहाँ अहंता-ममतावाले सामान्य मनुष्योंकी दाह-क्रिया की जाती
है, वहाँपर यदि भजन-ध्यान किया जाय तो विक्षेप होगा, भय लगेगा, भजन नहीं बनेगा । परन्तु जहाँ अहंता-ममतासे रहित सन्त-महापुरुषोंकी दाह-क्रिया की जाती है, वहाँ बैठकर यदि भजन-ध्यान किया जाय तो मन ठीक लगेगा,
भजन-ध्यानमें मदद मिलेगी, शान्ति मिलेगी,
पवित्रता आयेगी । |