।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
         आश्विन पूर्णिमा, वि.सं.-२०७९, रविवार

गीतामें अहंता-ममताका त्याग



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साधकको शरीर आदिमें मानी हुई अहंता-ममताका ही त्याग करना है; क्योंकि वह उसका स्वरूप नहीं है । भगवान्‌ने स्वरूपका वर्णन करते हुए कहा है कियह पुरुष स्वयं अनादि और निर्गुण होनेसे परमात्मस्वरूप ही है, और यह शरीरमें रहता हुआ भी न करता है तथा न लिप्त होता है’ (१३ । ३१) । परन्तु यह अपनेमेंमैं करता हूँ और मैं चाहता हूँ’‒ऐसा मान लेता है । इन्हीं दोनों मान्यताओंका निषेध करते हुए भगवान्‌ने कहा है‒जिसका अहंकृतभाव नहीं है और जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती, वह अगर सम्पूर्ण प्राणियोंको मार दे, तो भी वह न मारता है और न लिप्त होता है (१८ । १७) । कारण कि वास्तवमें इसके स्वरूपमें कर्तृत्वाभिमान और लिप्तता है ही नहीं । रामचरितमानसमें जहाँ लक्ष्मणजीने मायाका स्वरूप पूछा, वहाँ उत्तरमें भगवान्‌ने कहा‒

मैं  अरु  मोर   तोर  तैं  माया ।

जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया ॥

(३ । १५ । १)

तात्पर्य है कि अहंता (मैं-पन) और ममता (मेरा-पन)‒यह मायाका स्वरूप है, अपना स्वरूप नहीं । परन्तु यह जीव इस मायाके वशमे हो गया है, बँध गया है । इस बन्धनसे ही मुक्‍त होना है । सन्तोंकी वाणीमें भी आया है‒

मैं   मेरेकी   जेवरी   गल   बँध्यो  संसार ।

दास कबीरा क्यों बँधे, जाके राम अधार ॥

शरीर आदिमें अहंता-ममता करनेसे स्वयं पराधीन हो जाता है और इसमें परिच्छिन्‍नता, मलिनता आ जाती है । अहंता-ममता छूटनेसे स्वतः ही स्वरूपका बोध हो जाता है । अहंता-ममताको छोड़नेसे पहले ही साधक यह दृढ़ विचार कर ले कि अहंता-ममता अपना स्वरूप नहीं है । त्याग उसीका होता है, जो अपना स्वरूप नहीं है । जो अपना स्वरूप होता है, उसका कभी त्याग नहीं होता ।

व्यवहारमें भी देखनेमें आता है कि मनुष्य जितनी अहंता-ममता करता है, उतना ही वह संसारमें आदर नहीं पाता; और जितनी अहंता-ममता छोड़ता है, उतना ही वह संसारमें आदर पाता है, स्थान पाता है । साधकका भी यह अनुभव होता है कि वह साधनमें ज्यों-ज्यों ऊँचा बढ़ता है, त्यों-ही-त्यों अहंता-ममता छूटती जाती है । अहंता-ममताके सर्वथा मिटनेपर साधक जीवन्मुक्त हो जाता है ।

अहंता-ममतासे मनुष्य महान् अपवित्र हो जाता है और इनके छूटनेसे महान् पवित्र हो जाता है । जैसे, कोई अहंता-ममतावाला सामान्य व्यक्ति मर जाता है तो लोग उसके कपड़े आदिको छूना भी नहीं चाहते । परन्तु जिसकी अहंता-ममता मिट गयी है, ऐसे सन्त-महापुरुषका शरीर छूनेपर लोग उसके कपड़े आदि वस्तुओंको आदरसहित रखना चाहते है; क्योंकि अहंता-ममता न रहनेसे उसकी वस्तुएँ महान पवित्र हो जाती हैं । केवल पवित्र ही नहीं होती, प्रत्युत औरोंको भी पवित्र करनेवाली हो जाती हैं । दूसरी बात जहाँ अहंता-ममतावाले सामान्य मनुष्योंकी दाह-क्रिया की जाती है, वहाँपर यदि भजन-ध्यान किया जाय तो विक्षेप होगा, भय लगेगा, भजन नहीं बनेगा । परन्तु जहाँ अहंता-ममतासे रहित सन्त-महापुरुषोंकी दाह-क्रिया की जाती है, वहाँ बैठकर यदि भजन-ध्यान किया जाय तो मन ठीक लगेगा, भजन-ध्यानमें मदद मिलेगी, शान्ति मिलेगी, पवित्रता आयेगी ।