।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०७९, सोमवार

गीतामें अहंता-ममताका त्याग



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अहंता-ममतासे रहित सन्त-महापुरुषोंको याद करनेसे घर पवित्र हो जाता है‒येषां संस्मरणात् पुंसां सद्यः शुद्ध्यन्ति वै गृहाः’ (श्रीमद्भा॰ १ । १९ । ३३) । परन्तु अहंता-ममतावाले मनुष्योंको याद करनेसे मलिनता आती है, जिससे अहंता-ममताको छोड़ना कठिन मालूम देता है ।

जिनमें अहंता-ममता नहीं है, उनमें भगवान्‌ विशेषतासे प्रकट हो जाते हैं । उनके शरीरका स्पर्श करनेवाली वायुसे, उनके वचनोंसे, उनके सम्पर्कमें आनेसे जीवमात्रमें पवित्रता आ जाती है । परन्तु उस पवित्रताको स्वीकार नहीं करनेसे अर्थात् उनमें दोषारोपण करनेसे उस पवित्रताके आनेमें आड़ लग जाती है ।

अपना जो होनापन (सत्ता) है, वह निरपेक्ष है, उसमें कभी परिवर्तन नहीं होता । परिवर्तन मैं-पन (अहंता)-में ही होता है, जैसे‒मैं विद्वान् हूँ; मैं मूर्ख हूँ; मैं ब्राह्मण हूँ; मैं क्षत्रिय हूँ; मैं वैश्य हूँ; मैं शूद्र हूँ; मैं देवता हूँ; मैं राक्षस हूँ आदि रूपसे मैं-पनमें ही परिवर्तन हुआ है, ‘हूँ’ (सत्ता)-में परिवर्तन नहीं हुआ है । मैं-पन तो बदलता रहा, परहूँ’ सबमें एक ही रहा । किसी-न-किसी वर्ण, आश्रम, योग्यता आदिके साथ सम्बन्ध जुड़नेसे मैं’ होता है; अतः मैं’ सापेक्ष है और सत्ता स्वतः रहती है; अतः सत्ता निरपेक्ष है ।

मैं सुखी हूँ; मैं दुःखी हूँ; मैं धनी हूँ; मैं निर्धन हूँ; मैं रोगी हूँ; मैं नीरोग हूँ‒यह सब तो पुराने कर्मोंके कारण है, पर अपनी सत्ता (‘हूँ’) किसी कारणसे नहीं है । अपनी सत्ता किसी कर्मका फल नहीं है; किसी वर्ण, आश्रम, योग्यता आदिका फल नहीं है ।मैं’ का त्याग करनेपरहूँ’ नहीं रहता प्रत्युतहै’ ही रहता है; क्योंकिमैं’ के कारण हीहूँ’ है ।

सुख-दुःख स्वयंमें नहीं हैं, प्रत्युतमैं’ में ही हैं ।मैं’ के साथ मिलनेसे, अहंतामें स्थित होनेसे, प्रकृतिमें स्थित होनेसे ही यह स्वयंमैं सुखी हूँ’ अथवामैं दुःखी हूँ’‒ऐसा मान लेता है । परन्तु जब यहमैं’ का त्याग कर देता है, ‘स्व’ में स्थित हो जाता है, तब यह सुखी-दुःखी नहीं होता, सुख-दुःखमें सम हो जाता है‒समदुःखसुखः स्वस्थः’ (१४ । २४) ।

जो मिटनेवाला होता है, वह बदलनेवाला होता है और जो मिटनेवाला नहीं होता, वह बदलनेवाला नहीं होता । जैसे, सुषुप्तिमें मैं-पनका भान नहीं होता, पर अपनी सत्ताका भान होता है किमैं बड़े सुखसे सोया’ । तात्पर्य है कि सभी अवस्थाओं, परिस्थितियों आदिमें अपनी सत्ताका अखण्ड अनुभव होता है, पर मैं-पनका अखण्ड अनुभव नहीं होता ।

कोई कहे कि ज्ञान (मुक्ति) होनेपर आसुरी-सम्पत्तिवाला अहम् (१६ । १३१५) ही मिटता है, सर्वथा अहम् नहीं मिटता, प्रत्युत सूक्ष्मरूपसे अहम् रहता है, तो उसका यह कहना ठीक नहीं है । कारण कि अहम्‌की उत्पत्ति अविद्यासे होती है[*] और ज्ञान होनेपर अविद्याका नाश हो जाता है । जब अविद्या नहीं रहेगी, तब अविद्यासे होनेवाला अहम् कैसे रहेगा ? जिस ज्ञानसे अविद्या न मिटे, वह ज्ञान कैसे ? वह तो सीखा हुआ शास्त्रज्ञान है, वास्तविक ज्ञान (बोध) नहीं । दूसरी बात, अगर सर्वथा अहम् नहीं मिटेगा तो जैसे बीजसे वृक्ष पैदा हो जाता है, ऐसे ही सूक्ष्म अहम् भी प्राकृत पदार्थ, व्यक्ति आदिका संग पाकर महान् हो जायगा, आसुरी-सम्पत्तिवाला हो जायगा ।

अहम् भोगेच्छा और मोक्षेच्छापर टिका रहता है । भोगेच्छा मिटनेपर मोक्षेच्छाकी पूर्ति हो जाती है अर्थात् चिन्मयताकी प्राप्‍ति हो जाती है, जिसमें अहम् था नहीं, है नहीं और होगा नहीं ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !



[*] अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः । अविद्या क्षेत्रस्तरेषां’…...

(पातञ्जलयोगदर्शन २ । ३-४)