Listen अहंता-ममतासे
रहित सन्त-महापुरुषोंको याद करनेसे घर पवित्र हो जाता है‒येषां संस्मरणात् पुंसां
सद्यः शुद्ध्यन्ति वै गृहाः’ (श्रीमद्भा॰ १ । १९ । ३३) । परन्तु अहंता-ममतावाले मनुष्योंको याद
करनेसे मलिनता आती है, जिससे अहंता-ममताको
छोड़ना कठिन मालूम देता है । जिनमें अहंता-ममता नहीं है, उनमें भगवान् विशेषतासे प्रकट हो जाते हैं । उनके शरीरका स्पर्श करनेवाली
वायुसे, उनके वचनोंसे, उनके सम्पर्कमें
आनेसे जीवमात्रमें पवित्रता आ जाती है । परन्तु उस पवित्रताको स्वीकार नहीं करनेसे
अर्थात् उनमें दोषारोपण करनेसे उस पवित्रताके आनेमें आड़ लग जाती है । अपना
जो होनापन (सत्ता) है, वह निरपेक्ष है,
उसमें कभी परिवर्तन नहीं होता । परिवर्तन मैं-पन (अहंता)-में ही होता
है, जैसे‒मैं विद्वान् हूँ; मैं मूर्ख हूँ;
मैं ब्राह्मण हूँ; मैं क्षत्रिय हूँ; मैं वैश्य हूँ; मैं शूद्र हूँ; मैं देवता हूँ; मैं राक्षस हूँ आदि रूपसे मैं-पनमें ही परिवर्तन
हुआ है, ‘हूँ’ (सत्ता)-में परिवर्तन नहीं
हुआ है । मैं-पन तो बदलता रहा, पर ‘हूँ’ सबमें एक ही रहा । किसी-न-किसी
वर्ण, आश्रम, योग्यता आदिके साथ सम्बन्ध जुड़नेसे ‘मैं’ होता है;
अतः ‘मैं’ सापेक्ष है और सत्ता स्वतः रहती है;
अतः सत्ता निरपेक्ष है । मैं
सुखी हूँ; मैं दुःखी हूँ; मैं धनी हूँ; मैं निर्धन हूँ; मैं रोगी हूँ;
मैं नीरोग हूँ‒यह सब तो पुराने कर्मोंके कारण है, पर अपनी सत्ता (‘हूँ’) किसी कारणसे नहीं है । अपनी सत्ता
किसी कर्मका फल नहीं है; किसी वर्ण, आश्रम, योग्यता आदिका फल
नहीं है । ‘मैं’ का त्याग करनेपर ‘हूँ’
नहीं रहता प्रत्युत ‘है’ ही रहता है; क्योंकि
‘मैं’ के कारण ही ‘हूँ’ है । सुख-दुःख
स्वयंमें नहीं हैं, प्रत्युत ‘मैं’ में ही हैं
। ‘मैं’ के साथ मिलनेसे, अहंतामें स्थित होनेसे, प्रकृतिमें स्थित होनेसे ही यह स्वयं ‘मैं सुखी हूँ’
अथवा ‘मैं दुःखी हूँ’‒ऐसा मान लेता है । परन्तु जब यह
‘मैं’ का त्याग कर देता है, ‘स्व’ में स्थित हो जाता है, तब यह सुखी-दुःखी नहीं होता, सुख-दुःखमें सम हो जाता है‒‘समदुःखसुखः स्वस्थः’ (१४ ।
२४) । जो
मिटनेवाला होता है, वह बदलनेवाला होता है और जो मिटनेवाला नहीं होता, वह बदलनेवाला
नहीं होता । जैसे, सुषुप्तिमें मैं-पनका
भान नहीं होता, पर अपनी सत्ताका भान होता है कि ‘मैं बड़े सुखसे सोया’ । तात्पर्य है कि सभी अवस्थाओं, परिस्थितियों आदिमें अपनी सत्ताका अखण्ड अनुभव
होता है, पर मैं-पनका अखण्ड अनुभव नहीं होता । कोई
कहे कि ज्ञान (मुक्ति) होनेपर आसुरी-सम्पत्तिवाला अहम् (१६ । १३‒१५) ही मिटता है,
सर्वथा अहम् नहीं मिटता, प्रत्युत सूक्ष्मरूपसे
अहम् रहता है, तो उसका यह कहना ठीक नहीं है । कारण कि अहम्की
उत्पत्ति अविद्यासे होती है[*]
और ज्ञान होनेपर अविद्याका नाश हो जाता है । जब अविद्या नहीं रहेगी,
तब अविद्यासे होनेवाला अहम् कैसे रहेगा ? जिस ज्ञानसे अविद्या न मिटे, वह ज्ञान कैसे ? वह तो सीखा हुआ शास्त्रज्ञान है,
वास्तविक ज्ञान (बोध) नहीं । दूसरी बात,
अगर सर्वथा अहम् नहीं मिटेगा तो जैसे बीजसे वृक्ष पैदा हो जाता है,
ऐसे ही सूक्ष्म अहम् भी प्राकृत पदार्थ, व्यक्ति
आदिका संग पाकर महान् हो जायगा, आसुरी-सम्पत्तिवाला हो जायगा
। अहम्
भोगेच्छा और मोक्षेच्छापर टिका रहता है । भोगेच्छा मिटनेपर मोक्षेच्छाकी पूर्ति हो
जाती है अर्थात् चिन्मयताकी प्राप्ति हो जाती है, जिसमें अहम् था नहीं, है नहीं और होगा नहीं । नारायण
! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[*] अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः । अविद्या क्षेत्रस्तरेषां’…... (पातञ्जलयोगदर्शन २ । ३-४) |