Listen गुणवर्णनतात्पर्यं ग्रहणत्यागयोर्मतम् । सत्त्वं ग्राह्यं रजस्त्याज्यं त्यजनीयं तमः सदा ॥ दूसरे अध्यायके ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक भगवान्ने सत्की
महिमा बतानेके लिये और असत्से अलग होनेके लिये सत्-असत्का वर्णन किया । ऐसे ही दूसरे
अध्यायके उनतालीसवेंसे तिरपनवें श्लोकतक भगवान्ने निष्कामभावकी महिमा बतानेके लिये
और कामनाका त्याग करनेके लिये व्यवसायी (निष्काम) और अव्यवसायी (सकाम) मनुष्योंका वर्णन
किया । वेदोंमें वर्णित भोग और ऐश्वर्यको प्राप्त करनेमें लगे हुए मनुष्य अव्यवसायी
हैं । वेदोंके जिस भागमें भोग और ऐश्वर्यका वर्णन हुआ है,
उस भागको ‘त्रैगुण्यविषयाः’
(२ । ४५) कहा गया है । उस भोग और ऐश्वर्यसे हटाकर अर्जुनको व्यवसायी
(निष्काम) बनानेके लिये भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन ! तू तीनों गुणोंके कार्यरूप
संसारसे अर्थात् भोग और ऐश्वर्यसे अलग हो जा‒‘निस्त्रैगुण्यो
भवार्जुन’ (२ । ४५) । प्रकृतिके परवश हुए प्राणियोंसे प्रकृतिजन्य गुण कर्म कराते
हैं, जिससे उनको क्रिया करनी ही पड़ती है अर्थात् वे कर्म किये बिना नहीं रह सकते‒‘कार्यते
ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः’ (३ । ५) । प्रकृतिके गुणोंके द्वारा ही सम्पूर्ण क्रियाएँ होती हैं‒‘प्रकृतेः
क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः’ (३ । २७) अर्थात् स्वयंका इन क्रियाओंके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । परन्तु अहंकारसे मोहित
अन्तःकरणवाला मनुष्य अपनेको कर्ता मान लेता है; अतः वह बँध जाता है । गुणों और कर्मोंके विभागको[*] जाननेवाला मनुष्य ‘गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं’‒‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते’ (३ ।
२८) अर्थात् सब परिवर्तन गुणोंमें
ही हो रहा है, क्रिया और कर्तापन केवल गुणोंमें ही है, अपनेमें नहीं‒ऐसा जानकर उनमें आसक्त नहीं होता;
अतः वह बन्धनसे छूट जाता है । परन्तु गुणोंसे मोहित हुआ पुरुष
उनमें आसक्त होनेसे बँध जाता है‒‘प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु’ (३ ।
२९) । तीसरे अध्यायके पैतीसवें श्लोकमें आया ‘विगुणः’ शब्द सत्त्व, रज और तम‒इन तीनों गुणोंसे रहितका वाचक नहीं है,
प्रत्युत सद्गुण-सदाचारोंकी कमीका वाचक है । चौथे अध्यायके तेरहवें श्लोकमें सृष्टिरचना-कालका वर्णन करते
हुए भगवान् कहते हैं कि पूर्वमें प्राणियोंके जैसे गुण,
स्वभाव थे और जैसे कर्म थे, उनके अनुसार ही मैंने ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र‒इन चारों वर्णोंकी विभागपूर्वक रचना की‒‘चातुर्वर्ण्यं
मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः’ (४ ।
१३) । परन्तु मैं इस रचनारूप कर्मसे
सर्वथा निर्लिप्त ही रहता हूँ । ऐसे ही मनुष्योंको भी सब काम करते हुए निर्लिप्त रहना
चाहिये ।
[*] गुणोंका कार्य होनेसे शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि आदि सब ‘गुण-विभाग’ है और इन शरीरादिसे होनेवाली क्रिया ‘कर्म-विभाग’ है । |